आओ बच्चों ! अबकी बारी होली अलग मनाते हैं

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  आओ बच्चों ! अबकी बारी  होली अलग मनाते हैं  जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । ऊँच नीच का भेद भुला हम टोली संग उन्हें भी लें मित्र बनाकर उनसे खेलें रंग गुलाल उन्हें भी दें  छुप-छुप कातर झाँक रहे जो साथ उन्हें भी मिलाते हैं जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । पिचकारी की बौछारों संग सब ओर उमंगें छायी हैं खुशियों के रंगों से रंगी यें प्रेम तरंगे भायी हैं। ढ़ोल मंजीरे की तानों संग  सबको साथ नचाते हैं जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । आज रंगों में रंगकर बच्चों हो जायें सब एक समान भेदभाव को सहज मिटाता रंगो का यह मंगलगान मन की कड़वाहट को भूलें मिलकर खुशी मनाते हैं जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । गुझिया मठरी चिप्स पकौड़े पीयें साथ मे ठंडाई होली पर्व सिखाता हमको सदा जीतती अच्छाई राग-द्वेष, मद-मत्सर छोड़े नेकी अब अपनाते हैं  जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । पढ़िए  एक और रचना इसी ब्लॉग पर ●  बच्चों के मन से

तन में मन है या मन में तन ?

Mind



ये मन भी न पल में इतना वृहद कि समेट लेता है अपने में सारे तन को, और हवा हो जाता है जाने कहाँ-कहाँ ! तन का जीव इसमें समाया उतराता उकताता जैसे हिचकोले सा खाता, भय और विस्मय से भरा, बेबस !

मन उसे लेकर वहाँ घुस जाता है जहाँ सुई भी ना घुस पाये, बेपरवाह सा पसर जाता है। बेचारा तन का जीव सिमटा सा अपने आकार को संकुचित करता, समायोजित करता रहता है बामुश्किल स्वयं को इसी के अनुरूप वहाँ जहाँ ये पसर चुका होता है सबके बीच। 

लाख कोशिश करके भी ये समेटा नहीं जाता,  जिद्दी बच्चे सा अड़ जाता है । अनेकानेक सवाल और तर्क करता है समझाने के हर प्रयास पर , और अड़ा ही रहता है तब तक वहीं जब तक भर ना जाय ।

और फिर भरते ही उचटकर खिसक लेता वहाँ से तन की परवाह किए बगैर ।

इसमें निर्लिप्त बेचारा तन फिर से खिंचता भागता सा चला आ रहा होता है इसके साथ, कुछ लेकर तो कुछ खोकर अनमना सा अपने आप से असंतुष्ट और बेबस ।

हाँ ! निरा बेबस होता है ऐसा तन जो मन के अधीन हो।

 ये मन वृहद् से वृहद्तम रूप लिए सब कुछ अपने में समेटकर करता रहता है मनमानी । वहीं इसके विपरीत कभी ये पलभर में सिकुड़कर या सिमटकर अत्यंत सूक्ष्म रूप में छिपकर बैठ जाता है तन के भीतर ही कहीं !

इसके बैठते भी तो फिर वही निरा व बेबस हो जाता है तन क्योंकि ये वृहद रूप में जितना प्रभावशाली है उतना ही सूक्ष्म रूप में भी ।

ऐसा लगता है जैसे इसके उस सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम बिंदु स्वरूप में सिमट रही हों सारे शरीर की समस्त नस नाड़ियाँ ,अजीब संकुचन के साथ ।

जितना प्रयास करो ये उतने ही भाव खाता है । अति से भी अतिशय भावों से भरता जाता है । भय, विस्मय ,शंका डर, क्रोध, प्रेम, ममता, मोह आदि की अतिशयता से लेकर लोभ, दुख, चिडचिडाहट, वासना, ईर्ष्या, घृणा, अहंकार ,जुनून आदि भावों की बहुलता से जीवन को दूभर कर देता है ।

हिम्मत करके एक बार छोड़ दें इसे इसके हाल पर तो ये अपने सारे दीर्घ लघु रूपों को छोड़ बैठ जाता है बराबर में साथी या समकक्ष सा बनकर । ताकि फिर से इस पर भरोसा करें, इसे माने और ये पुनः पुनः रच सके अपनी माया ।

परन्तु इसे इसके हाल पर छोड़ना इतना भी आसान कहाँ ! समझ ही कहाँ आता है कि कब ये तन के भीतर और बाहर अपना स्थापित्व जमा बैठा ! ये तन में है या तन इसमें ? 

इसे बस में करने के लिए तो शायद इसके ही अन्दर घुसना होगा । सच में बड़ा मायावी है ये मन !

धन्य हैं वे जो साध पाते हैं इसे अपने आत्म चिंतन से , ध्यान साधना से एकाग्रता बढाकर सिद्ध करके निर्विकार और निर्विचार कर प्राप्त करते है आत्मोन्नति ।

सच में धन्य हैं वे ...!






मन पर आधारित मेरी एक और रचना निम्न लिंक पर -

मन इतना उद्वेलित क्यों ?

 


टिप्पणियाँ

  1. वाह मीना जी...क्या खूब ल‍िखा...मन वृहद् से वृहद्तम रूप लिए सब कुछ अपने में समेटकर करता रहता है मनमानी..वाह

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  2. तन और मन की/देहरी के बीच
    भावों के उफनते/अथाह उद्वेगों के ज्वार / सिर पटकते रहते है।
    देहरी पर खड़ा/अपनी मनचाही
    इच्छाओं को पाने को आतुर
    चंचल मन,
    अपनी सहुलियत के हिसाब से
    तोड़कर देहरी की मर्यादा पर रखी
    हर ईंट
    बनाना चाहता हैनयी देहरी ..
    दी बहुत सुंदर विश्लेषण मन का .. ।
    सस्नेह प्रणाम दी।
    सादर।
    --------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार ४ जनवरी २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  3. शायद इसके सामर्थ्य को देख कर ही ''मन का मनका'' फेरने को कहा गया है

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  4. मन के भावों का गहन विश्लेषण सुधा जी !बहुत सुन्दर और लाजवाब सृजन ।

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  5. खेल ही सारा मन का है जो विचलित ही रहता है

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