तन में मन है या मन में तन ?

मन कभी वैरी सा बन के क्यों सताता है ?
दिल दुखी पहले से ही फिर क्यों रुलाता है ?
भूलने देता नहीं बीते दुखों को भी
आज में बीते को भी क्यों जोड़े जाता है ?
हौसला रखने दे, जा, जाने दे बीता कल,
आज जो है, बस उसी में जी सकें इस पल ।
आने वाले कल का भी क्यों भय दिखाता है ?
मन कभी वैरी सा बन के क्यों सताता है ?
हर लड़ाई पार कर जीवन बढ़े आगे,
बुद्धि के बल जीत है, दुर्भाग्य भी भागे ।
ना-नुकर कर, क्यों उम्मीदें तोड़ जाता है ?
मन कभी वैरी सा बन के क्यों सताता है ?
मन तू भी मजबूत हो के साथ देता तो,
दृढ़ बन के दुख को आड़े हाथ लेता तो,
बेबजह क्यों भावनाओं में डुबाता है ?
मन कभी वैरी सा बन के क्यों सताता है ?
यंत्र है तन, मन तू यंत्री, रहे नियंत्रित जो
पा सके जो चाहे, कुछ भी ना असम्भव हो?
फिर निराशा के भँवर में क्यों फँसाता है ?
मन कभी वैरी सा बन के क्यों सताता है ?
मन के ताने बाने को व्यक्त करती बहुत सुंदर रचना, सुधा दी।
जवाब देंहटाएंतहेदिल से धन्यवाद एवं आभार ज्योति जी त्वरित टिप्पणी से उत्साहवर्धन करने हेतु ।
हटाएंबहुत सुंदर वर्णन, मनोदशा का जीवन्त चित्रण, बधाई
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 01 जुलाई 2022 को 'भँवर में थे फँसे जब वो, हमीं ने तो निकाला था' (चर्चा अंक 4477) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार रविन्द्र जी !मेरी रचना को चर्चा मंच पर साझा करने हेतु ।
हटाएंअच्छी अभिव्यक्ति है यह आपकी सुधा जी - शायद मेरे जैसों के लिए ही है।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद जितेन्द्र जी बहुत दिनों बाद आपके आगमन से अत्यंत खुशी हुई।
हटाएंसादर आभार ।
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंतहेदिल से धन्यवाद आ.आलोक जी !
हटाएंसादर आभार।
अंतरमन में उठे भावों को बहुत बढ़िया गढ़ा।
जवाब देंहटाएंयंत्र है तन, मन तू यंत्री, रहे नियंत्रित जो
पा सके जो चाहे, कुछ भी ना असम्भव हो?
फिर निराशा के भँवर में क्यों फँसाता है ?
मन कभी वैरी सा बन के क्यों सताता है ?.... बहुत सुंदर।
सादर स्नेह
अंतर्मन के द्वंद को व्यक्त करती बहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंअन्तर्मन के भाओं को व्यक्त करती सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंमन का स्पंदन निशानी जीवंतता की
जवाब देंहटाएंसता-रूला के हर बार मन समझाता है
जगबंधन ,नियति की नीति रहस्यमयी
मन मानुष का समझ कहाँ पाता है ।
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भावपूर्ण बहुत सुंदर अभिव्यक्ति सुधा जी।
सस्नेह।
अंतर्मन की आत्यंतिक अनुभूति!!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंआपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंसुधा जी, ऐसी निराशा भरी कविताएँ तो कोई उम्र के उस पड़ाव पर लिखता है जब शरीर के अंग-प्रत्यंग जवाब देने लगते हैं.
जवाब देंहटाएंआपकी जगह ऐसी दुखियारी कविता लिखने का अधिकार तो हमारे जैसे नौजवानों को है.
जवाब देंहटाएंमन तू भी मजबूत हो के साथ देता तो,
दृढ़ बन के दुख को आड़े हाथ लेता तो,
बेबजह क्यों भावनाओं में डुबाता है ?
मन कभी वैरी सा बन के क्यों सताता है ?
...सही कहा आपने मन कभी कभी अनर्गल प्रलापों का रोना लेकर बैठ जाता है, और हमारी सारी चेतना को शून्य कर जाता है ।
बहुत सराहनीय रचना ।
सराहनीय सृजन।
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएं"आज में बीते को भी क्यों जोड़े जाता है ?"
जवाब देंहटाएंसच मन वैरी ही है जब दुख में डुबता है तो अगली पिछली सभी को खींच कर उसी पल तक घसीट लाता है और ऐसी भंवर में उलझाया है कि कोई सहारा उबार के बाहर न लें आते उसके माता जाल से।
सटीक अभिव्यक्ति।
सुंदर।
बहुत अच्छी कविता. हार्दिक शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंसमय का दबाव मन को ऐसा करने पर विवश कर देता है। सत्य रचना। शुभकामनाएँ 🌷🌷
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी और प्रभावी रचना
जवाब देंहटाएंजगबंधन ,नियति की नीति रहस्यमयी
जवाब देंहटाएंमन मानुष का समझ कहाँ पाता है।
भावपूर्ण सुंदर प्रभावी रचना सुधा जी।
बहुत भावपूर्ण कविता !
जवाब देंहटाएंआशा-निराशा तो जीवन में सफलता-असफलता के साथ आती-जाती रहती हैं.
लेकिन निराश हो कर केवल सर पकड़ कर रोने से तो बचा-खुचा भी हम से छिन जाएगा.
हिम्मत, साहस, धैर्य और दृढ़-संकल्प में, हमारी कैसी भी डूबती नैया को पार लगाने के क्षमता है.
जी , आ.सर ! सही कहा आपने ...सुंदर सीख के साथ उत्साहवर्धन करने के लिए हार्दिक धन्यवाद आपका ।
हटाएंसादर आभार ।