घिंडुड़ी (गौरैया)
चित्र साभार, pixabay.com से....
गढ़वाली भाषा में लिखी मेरी 'पहली कविता' एवं उसका हिन्दी रूपांतरण भी....।
हे घिंडुड़ी! दिखे ने तू!
बोल घिंडुड़ी कनै गे तू !!
छज्जा अडग्यूँ घोल पुराणु
कन ह्वे तेकुण सब विराणु
एजा घिंडुड़ी ! सतै ना तू
बोल घिंडुड़ी कनै गे तू !!
झंग्वर सरणा चौक मा दद्दी
चूँ-चूँ करीकि वखी ए जदी
खतीं झंगरयाल बुखै जै तू
बोल घिंडुड़ी कनै गे तू !!
त्वे बिना सुन्न हुँईं तिबारी
रीति छन कन गौं-गुठ्यारी
छज्जा निसु घोल बणै जै तू
बोल घिंडुड़ी कनै गे तू !!
बिसकुण सुप्पु उंद सुखणा
खैजा कुछ बिखरैजा तू !
बोल घिंडुड़ी कनै गे तू !!
हे घिडुड़ी दिखे ने तू !
कख गेई बतै दे तू !!
तपती माटी सह नि पायी
टावरुन दिशा भटकायी
नयार सुखेन त रै ने तू
लुकीं छे कख बतै दे तू !!
आ घिंडुड़ी!
चौक म नाज-पाणि रख्यूँ च
हुणतालि डाल्यूँ क छैल कर्यूं च
निभा दगड़, रुलै न तू
न जा कखि , घर एजा तू
एजा घिंडुड़ी ! एजा तू
प्यारी घिंडुड़ी! एजा तू !!
प्रस्तुत कविता जाने - माने वरिष्ठ ब्लॉगर एवं लेखक आदरणीय विकास नैनवाल 'अंजान' जी द्वारा संपादित ई पत्रिका 'लिख्वार' में प्रकाशित की गई है । इसके लिए मैं उनका हार्दिक आभार व्यक्त करती हूँ ।
ई पत्रिका लिख्वार में कविता का लिंक निम्न है....
https://likhwar.blogspot.com/2021/06/ghindudi-garhwali-poem-by-sudha-devrani.html
कविता का हिन्दी रूपांतरण----
गौरैया(घिंडुड़ी)
हे गौरैया ! दिखाई नहीं देती तू !
बोल गौरैया !कहाँ गयी तू !!
छज्जे में फँसे हैं तेरे घोंसले पुराने
कैसे हो गये हम सब तेरे लिए विराने
आजा गौरैया! सता न तू!
बोल गौरैया ! कहाँ गयी तू !!
झंगोरा बीनती आँगन में दादी
चूँ-चूँ करके वहीं आ जाती
गिरे झंगरयाल खा जा तू !
बोल गौरैया !कहाँ गयी तू !!
तेरे बिना सूनी है तिबारी
खाली लगती हैं गौं-गुठ्यारी
छज्जे के नीचे घोंसला बना दे तू!
बोल गौरैया !कहाँ गयी तू !!
सूप में सुखाने रखे अनाज को
कुछ खा जा कुछ बिखरा जा तू !
कहाँ छुप गयी बता दे तू !!
धरती का तापमान सह न पायी
मोबाइल टावरों ने दिशा भटकायी
नदियाँ सूखी , न रह गयी तू !
कहाँ चली गयी बता दे तू !!
आ गोरैया !
आँगन में दाना-पानी रखा है
सुन्दर डालियों की छाया की है
साथ निभा ले , रुला मत तू !
मत जा कहीं , घर आ जा तू !
आ जा गौरैया! आ जा तू !!
आ जा गौरैया ! आ जा तू !
प्यारी गौरैया! आजा तू !
विरण (विराने)= पराये
झंगोरा = बारीक धान
सारती = बीनती (भूसा अलग करना)
झंगरयाल =भूसा अलग किया हुआ बारीक धान
गौं-गुठ्यार= गाँव की गौशाला (जहाँ गोरैया गोबर से कीड़े चुगती है)
टिप्पणियाँ
मत जा कहीं , घर आ जा तू !
आ जा गौरैया! आ जा तू !!
वाह !! हाँ,गौरैया! अब आ जा तू....नहीं करेंगे अब हम मनमानी बस आजा तू। मनमोहित करने वाली...बहुत ही सुंदर सृजन सुधा जी,सादर नमन आपको
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका प्रोत्साहन हेतु।
सादर आभार।
पत्रिका में छपने के लिए हार्दिक बधाई ।
खाली लगती हैं गौं-गुठ्यारी
छज्जे के नीचे घोंसला बना दे तू!
बोल गौरैया !कहाँ गयी तू !!" - विश्व के सबसे विभत्स और बुद्धिजीवी प्राणी ने,अन्य सभी प्राणियों का जीवन सबसे ज्यादा दूभर किया है .. और तो और .. विकास के नाम पर पूरे ब्रह्मांड के नक़्शे को बदल दिया है .. यथोचित हस्तक्षेप करने कब आएंगे अवतार ?...
"सोचों की रोशनदानविहीन वातानुकूलित कमरों में मानो ऐ साहिब!
अपनापन की गौरैयों का पहले जैसा रहा आवागमन भी अब कहाँ ?"
लुप्त होती इस मसूमनपर पढ़ने पर बहुत अच्छा महसूस होता है ।
सादर
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका।
ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
गड्वाली और फिर हिन्दी रूपांतरित रचना ... एक अलग भाव लिए बेहतरीन रचना ...
सादर आभार।
बहुत बहुत सुंदर संदेश दे रही है आपकी कविता, और पर्यावरण की भेंट चढ़ते ये प्राणी ,और क्या क्या ??
अप्रतिम अनुपम।
बहुत बहुत बधाई आपको लिख्वार में रचना के प्रकाशन के लिए।
सस्नेह।
सादर आभार आपका।
यो छ् हमरो उज्युडु गढ़वाल।
मूसा कुदिणी छिन मुडली माँ।
बांदर नचिणी छिन तिबरी माँ।
पलायन की चौतरफा यन मार प्वाड़ी,
मनकी त मनकी,घिंड़ुड़ी भि फुर्र ह्वे ग्यायी।
बहुत सुंदर रचना।
सस्नेह आभार।
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
सस्नेह आभार।
सादर नमन
नव वर्ष की शुभकामनाएँ