घर से निकलते ही......
घर से निकलते ही
ठण्ड
ठण्ड
से ठिठुरते ही
दिखता है अपना शहर
कुछ भीगे भागे से
कुछ हैं अभागे से
सहते हैं ठंड का कहर
आसमां को तकते हैं
दुआ फिर ये करते हैं
कुछ धूप आये नजर
घर से निकलते ही
ठंड से ठिठुरते ही
दिखता है अपना शहर
'एक माँ'
पतली सी धोती में
शिशु को छुपाती वो
बेबस सी आयी नजर
बुझता अलाव उसका
फूंकनी से फूंके वो
रो - रो के करती बसर
"ये सर्द निकले तो
कुछ कर ही लूँगी मैं
सह ले लला ! इस पहर"
पतली सी धोती में
शिशु को छुपाती वो
बेबस सी आयी नजर....
' नन्हा छोटू '
खेलने की उमर में ही
डिलीवरी करता वह
सुबह-शाम यूँ घर-घर
सबके ही सामने यूँ
डपट दिया जाता वो
दिखता तो है बेफिकर
आँखें सब कहती हैंं
झुकी -झुकी रहती हैं
कितना बने वो वजर
खेलने की उमर में ही
डिलीवरी करता वो
सुबह-शाम यूँ घर-घर
'एक गरीब'
टूटे से सपने है
बदहाल अपने हैं
पर मन में आशा की लहर
कंपकंपाती शीत में वो
तार-तार वसन पहने
शीत-बाण से है बेफिकर
दिनभर कमरकस के
दिहाड़ी कमाता वो
करता गुजर 'औ' बसर
है मन में आशा की लहर।
चित्र साभार गूगल से....
टिप्पणियाँ
जहाँ, किसी सलमान की कार, उसके ऊपर चढ़ जानी है.
संवेदना से परिपूर्ण
बहुत कमाल की रचना ... और कमाल का टर्न ... घर से निकलते ही ...
जिंदगी की कठोर सच्चाइयों से जूझती जिंदगी का लाजवाब आंकलन है ये ताज़ा रचना ...
उम्दा ...
हृदयतल से धन्यवाद आपका।
हृदयतल से धन्यवाद आपका
सादर आभार।
सादर आभार।
हृदयतल से धन्यवाद आपका।
सस्नेह आभार।
सस्नेह आभार...
मेरी रचना को मंच में साझा करने हेतु...।
बहुत सही मर्मस्पर्शी
सादर आभार...
शिशु को छुपाती वो
बेबस सी आयी नजर...कड़वी सच्चाई व्यक्त करती बहुत ही सुंदर रचना
सादर आभार...
सभी में यथार्थ का हृदय स्पर्शी चित्ररत,
बहुत सुंदर सटीक सृजन सुधा जी ।
सस्नेह आभार।
सादर आभार।
सादर आभार।