संदेश

2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ब्लॉग से मुलाकात..बहुत दिनों बाद

चित्र
मेरे ब्लॉग ! देखो मैं आ गयी ! थोड़े समय के लिए ही सही  मन में खुशियाँ छा गयी ! जानते हो तुमसे मिलने को  क्या कुछ नहीं किया मैंने ! और तो और छोटों से किया वादा ही तोड़ दिया मैंंने ! पर ये क्या ! ऐसे क्यों उदास बैठे हो ! जरा उत्साहित भी नहीं, ज्यों गुस्सा होकर ऐंठे हो ! अब तुमसे क्या बताना या छुपाना  तुम भी तो जानते हो न, मोबाइल, कम्प्यूटर ठीक नहीं सेहत के लिए ये तुम भी तो मानते हो न !!! परन्तु तुम तक आने का माध्यम सिर्फ इंटरनेट है... उसी से हो तुम,और तुम्हारा सबकुछ कम्प्यूटर में सैट है । हम भी नहीं मिलेंगे तुमसे जब ये वादा करते हैं तभी अपने छोटों को  कम्प्यूटर वगैरह से दूर रखते हैं। रेडिएशन के नुकसान अगर  उनसे कह देते हैं "आप क्यों" कहकर वे तो हमें ही चुप कर देते हैं। हाँ दुख होता है कि अपना तो जमाना ही नहीं आया छोटे थे तो बड़ों से डरे, अब बड़े हैं तो छोटों ने हमें डराया !!! खैर ! उनकी सलामती के लिए डर कर ही रह लेते हैं हम अपने छोटों के खातिर मेरे ब्लॉग ! तुमसे दूरियाँ सह लेते हैं...

क्रोध आता नहीं , बुलाया जाता है

चित्र
कितनी आसानी से कह देते हैं न हम कि  क्या करें गुस्सा आ गया था ...   गुस्से में कह दिया....                        गुस्सा !!    गुस्सा (क्रोध) आखिर बला क्या है ?                    सोचें तो जरा !     क्या सचमुच क्रोध आता है.....?     मेरी नजर में तो नहीं     क्रोध आता नहीं     बुलाया जाता है     सोच समझ कर     हाँ !  सोच समझ कर    किया जाता है गुस्सा   अपनी सीमा में रहकर......     हाँ ! सीमा में  !!!!    वह भी    अधिकार क्षेत्र की ......    तभी तो कभी भी   अपने से ज्यादा   सक्षम पर या अपने बॉस पर   नहीं कर पाते क्रोध   चाहकर भी नहीं......   चुपचाप सह लेते हैं   उनकी झिड़की, अवहेलना   या फिर अपमानजनक डाँट   क्योंकि जानते हैं   कि भलाई है सहने में......   और इधर अपने से छोटों पर   अक्षम पर या अपने आश्रितों पर   उड़ेल देते हैं सारा क्रोध   बिना सोचे समझे.....   बेझिझक, जानबूझ कर   हाँ !  जानबूझ कर ही तो   क्योंकि जानते हैं.....   कि क्या बिगाड़ लेंगे ये   दुखी होकर भी........   तो क्या क्रोध हमारी शक्ति है ?   या शक्ति का प्रदर्शन ?    हाँ!

शरद पूनम के चाँद

चित्र
अब जब सब प्रदूषित है तुम प्रदूषण मुक्त रहोगे न शरद पूनम के चाँद हमेशा धवल चाँदनी दोगे न..... खीर का दोना रखा जो छत पे अमृत उसमें भर दोगे न.... सोलह कलाओं से युक्त चन्द्र तुम पवित्र सदा ही रहोगे न........ चाँदी से बने,सोने से सजे तुम आज धरा के कितने करीब ! फिर भी उदास से दिखते मुझे क्या दिखती तुम्हें भी धरा गरीब...? चौमासे की अति से दुखी धरा का कुछ तो दर्द हरोगे न.... कौजागरी पूनम के चन्द्र हमेशा सबके रोग हरोगे न ....... सूरज ने ताप बढ़ाया अपना  सावन भूला रिमझिम सा बरसना ऐसे ही तुम भी "ओ चँदा " ! शीतलता तो नहीं बिसरोगे न... रास पूनम के चन्द्र हमेशा रासमय यूँ ही रहोगे न.... शरद पूनम के चाँद हमेशा  धवल चाँदनी दोगे न........                                     चित्र साभार गूगल से..

गृहस्थ प्रेम

चित्र
तुम साथ होते हो तो न जाने कितनी कपोल-कल्पनाएं  उमड़ती-घुमड़ती हैं अंतस में... और मैं तड़पती हूँ एकान्त के लिए कि झाँँक सकूँ एक नजर अपनी कल्पनाओं के खूबसूरत संसार में। तुम्हारी नजरों से बचते-बचाते छुप-छुपके झाँक ही लेती हूँ और देखने लगती हूँ कोई खूबसूरत सपना पर तभी तुम टोक देते हो कि "कहाँ खो गई" !!! फिर क्या.....तुमसे छुपाये नहीं छुपा पाती अपनी खूबसूरत कल्पनाओं के  अधूरे से सपने को। और फिर सुनते ही तुम निकल पड़ते हो  बिना कुछ कहे ,   जैसे रूठे से मैं असमंजस में सोचती रह जाती हूँ  कि मैंने किया क्या? बस सपना ही तो देखा था, अधूरा सा। तुम्हारे जाने के बाद समय है एकांत भी ! पर न जाने क्यों कोई सपना नजर नहीं आता नहीं उमड़ती अंतस में वैसी कल्पनाएं सब सूना सा हो जाता है तब वर्तमान में हकीकत के साथ जीती हूँ मैं ठीक तुम्हारी तरह हमारे हकीकत के घर-संसार की पहरेदार बनकर तुम्हारे इंतजार में तुम्हारी यादों के साथ ! और फिर एक दिन खत्म होता है ये यादों का सिलसिला और पल-पल का इंतजार तुम्हारे आने के साथ ! हाँ ! आते हो तुम ढ़ेर

भावनाओं के प्रसव की उपज है कविता....

चित्र
आज मन में ख्याल आया रचूँ मैं भी इक कविता मन को बहुत अटकाया इधर-उधर दौड़ाया कुछ पल की सैर करके ये खाली ही लौट आया डायरी रह गयी यूँ कोरी कल्पना रही अधूरी मैने भी जिद्द थी ठानी है कविता मुझे बनानी जा ! उड़ मन परी लोक में ला ! परियों की कोई कहानी मैं उसमें से कुछ चुन लूँ फिर कागज पे कलम से बुन लूँ बन जाये कोई कविता जो मन को लगे सुहानी फुर उड़ चला ये नील गगन में लौटा फिर इसी चमन में पर ना साथ कुछ भी लाया मैने फिर इसे भगाया जा ! सागर बड़ा सुहाना सुन्दर हो कोई मुहाना ! कहीं सीपी मचल रही हो... बूँद मोती में ढल रही हो ! जा ! वहीं से कुछ ढूंढ लाना रे ! मन खाली न आना !! पर ये खाली ही आया.... इसे वहां भी कुछ न भाया मैं तब भी ना हार मानी मुझे कविता जो थी बनानी इस मन को फिर समझाया देख ! सावन कहीं हो आया रिमझिम फुहारें बरस रहीं हो धरा महकी बहकी सी हो कोई नवेली सज रही हो हाथ मेंहदी रच रही हो हौले उसके पास जाना प्रीत थोड़ी ले के आना मैं उसी से प्रीत चुन लूँ फिर कागज पे कलम से बुन लूँ बने कविता या फिर कहानी जो मन को लगे सुहानी मेरी जिद्द पे मन उकताया झट अन्तर

बेटी----टुकड़ा है मेरे दिल का

चित्र
  मुद्दतों बाद उसका भी वक्त आया जब वह भी कुछ कह पायी सहमत हो पति ने आज सुना वह भी दिल हल्का कर पायी आँखों में नया विश्वास जगा आवाज में क्रंदन था उभरा कुचली सी भावना आज उठी सोयी सी रुह ज्यों जाग उठी हाँ ! बेटी जनी थी बस मैंने तुम तो बेटे ही पर मरते थे बेटी बोझ, परायी थी तुमको उससे यूँ नजरें  फेरते थे... तिरस्कार किया जिसका तुमने उसने देवतुल्य सम्मान दिया निज प्रेम समर्पण और निष्ठा से दो-दो कुल का उत्थान किया आज बुढापे में बेटे ने अपने ही घर से किया बेघर बेटी जो परायी थी तुमको बिठाया उसने सर-आँखोंं पर आज हमारी सेवा में वह खुद को वारे जाती है सीने से लगा लो अब तो उसे ये प्रेम उसी की थाती है....... ********************** सच कहती हो,खूब कहो ! शर्मिंदा हूँ निज कर्मों से...... वंश वृद्धि और पुत्र मोह में  उलझा था मिथ्या भ्रमोंं से फिर भी धन्य हुआ जीवन मेरा जो पिता हूँ मैं भी बेटी का बेटी नहीं बोझ न पराया धन वह तो टुकड़ा अपने दिल का !!!!!!                    चित्र- साभार गूगल से...

बेटी----माटी सी

चित्र
कभी उसका भी वक्त आयेगा ? कभी वह भी कुछ कह पायेगी ? सहमत हो जो तुम चुप सुनते  मन हल्का वह कर पायेगी ? हरदम तुम ही क्यों रूठे रहते हर कमी उसी की होती क्यूँ ? घर आँगन के हर कोने की खामी उसकी ही होती क्यूँ ? गर कुछ अच्छा हो जाता है तो श्रेय तुम्ही को जाता है इज्ज़त है तुम्हारी परमत भी उससे कैसा ये नाता है ? दिन रात की ड्यूटी करके भी करती क्या हो सब कहते हैं वह लाख जतन कर ले कोशिश पग पग पर निंदक रहते हैं  । खुद को साबित करते करते उसकी तो उमर गुजरती है जब तक  विश्वास तुम्हें होता तब तक हर ख्वाहिश मरती है । सूनी पथराई आँखें तब भावशून्य हो जाती हैं फिर वह अपनी ही दुश्मन बन  इतिहास वही दुहराती है । बेटी को वर देती जल्दी दुख सहना ही तो सिखाती है बेटी माटी सी बनकर रहना यही सीख उसे भी देती है ।

पौधे---अपनों से

चित्र
कुछ पौधे जो मन को थे भाये घर लाकर मैंंने गमले सजाये मन की तन्हाई को दूर कर रहे ये अपनों के जैसे अपने लगे ये । हवा जब चली तो ये सरसराये  मीठी सी सरगम ज्यों गुनगनाये सुवासित सुसज्जित सदन कर रहे ये अपनों के जैसे अपने लगे ये । इक रोज मुझको बहुत क्रोध आया गुस्से में मैंंने इनको बहुत कुछ सुनाया। न रूठे न टूटे मुझपे, स्वस्यचित्त रहे ये अपनों के जैसे अपने लगे ये । खुशी में मेरी ये भी खुशियाँँ मनाते खिला फूल तितली भौंरे सभी को बुलाते उदासीन मन उल्लासित कर रहे ये अपनों के जैसे अपने लगे ये । मुसीबतों में जब मैंने मन उलझाया मेरे गुलाब ने प्यारा पुष्प तब खिलाया आशान्वित मन मेरा कर रहे ये अपनों के जैसे अपने लगे  । धूल भरी आँधी या तूफान आये घर के बड़ों सा पहले ये ही टकरायेंं घर-आँगन सुरक्षित कर रहे ये अपनों के जैसे अपने लगे ये ।                   चित्र साभार गूगल से...

अब भावों में नहीं बहना है....

चित्र
जाने कैसा अभिशाप  है ये मन मेरा समझ नहीं पाता है मेरी झोली में आकर तो सोना भी लोहा बन जाता है जिनको मन से अपना माना उन्हीं ने ऐसे दगा दिया यकींं भी गया अपनेपन से तन्हा सा जीवन बिता दिया एक सियासत देश में चलती एक घरों में चलती है भाषण में दम जिसका होता सरकार उसी की बनती है सच ही कहा है यहाँ किसी ने "जिसकी लाठी उसकी भैंस" बड़बोले ही करते देखे हमने इस दुनिया में ऐश नदी में बहने वाले को साहिल शायद मिल भी जाये भावों में बहने वाले को  अब तक "प्रभु" भी ना बचा पाये गन्ने सा मीठा क्या बनना कोल्हू में निचोड़े जाओगे इस रंग बदलती दुनिया में गिरगिट पहचान न पाओगे दुनियादारी सीखनी होगी गर दुनिया में रहना है 'जैसे को तैसा' सीख सखी! अब भावों में नहीं बहना है                                        चित्र;साभार गूगल से....

🌜नन्हेंं चाँद की जिद्🌛

चित्र
            भोर हुई पर नन्हें शशि आज आसमान में ही विराजमान हैं         पिता आकाश इससे अनभिज्ञ पुत्र रवि के आगमन की शान में हैं।     माँ धरती प्रतीक्षा में चिन्तित...... पुत्र शशि की राहें ताक रही । कहाँ रह गया नन्हा शशि....... झुक सुदूर तक झाँक रही ।       नन्हा शशि तो जिद्द कर बैठा..... मैं आज नहीं घर जाऊँँगा ।                 याद आती है रवि भैया की...... मैं उनसे यहीं मिल पाऊँँगा । धरती माँ ने भेजा संदेशा..... शशि जल्दी से आओ घर !                   क्रोधित होंगे आकाश पिता...... तुम क्या करते हो राहों पर ?... शीत की ठण्डी में ठिठुरा मैं..... माँ ! काँप रहा हूँ यहाँ थर-थर ।                 भाई रवि मेरे धूप मुफ्त में...... बाँट रहे हैं ,धरती पर । मिलकर उनसे थोड़ी - सी...... गर्माहट भी ले आऊँगा ।                 याद आती है रवि भैया की..... उनसे मिलकर ही घर आऊँँगा ।।       चित्र ;साभार गूगल से...

"कल दे दूंगी.....कसम से"

चित्र
सीमा बहुत ही सीधी-सादी लड़की थी,बहुत दूर के गाँव से आती थी स्कूल में पढ़ने..........अकेली वही लड़की थी उस गाँव की...लड़के तो बहुत आते थे वहाँ से....  पर लड़कियों को नहीं पढ़ाते थे वे लोग.... उनके गाँव में तो कोई स्कूल था नहीं, दूर के गाँव भेजकर लड़कियों को पढाना वे ठीक नहीं समझते थे । क्योंकि  बारहवीं तक के स्कूल में कॉलेज से भी बद्तर माहौल था स्कूल दूर होने के कारण बच्चों को देर से पढाना शुरू करते थे । बारहवीं तक पहुँचते-पहुँचते वे विवाह योग्य हो जाते.........। लड़कों  में अक्सर अनुशासनहीनता ज्यादा रहती थी।कुछ बिगड़ैल लड़के स्कूल में दादागिरी करते,जिनके  डर से वहाँ लड़कियों कम ही पढ़ती थी..... सीमा पढ़ने में बहुत ही होशियार थी सबके खिलाफ जाकर उसकी विधवा माँ उसे पढ़ाने भेजती ढ़ेर सारी सीख के साथ।  और सीमा भी माँ की सीख का मान रखने में कोई कसर ना छोड़ती।  जंगल के लम्बे रास्ते आते-जाते ढे़र सारी मुसीबतें पार करते हुए सीमा का बारहवीं का आखिरी साल चल रहा था । कुछ लड़कियों से सीमा की पक्की दोस्ती हो गयी थी इतने सालों में ।  पर अब बारहवीं कक्षा के बाद हमेशा के लिए बिछड़ना था इनसे ।   इसीलिए ये स

चलो बन गया अपना भी आशियाना

चित्र
कहा था मैंने तुमसे इतना भी न सोचा करो ! एक दिन सब ठीक हो जायेगा अपना ख्याल भी रखा करो ! सूखे पपड़ाये से रहते तुम्हारे ये होंठ ! फुर्सत न थी इतनी कि पी सको पानी के दो घूँट ! अथक,अनवरत परिश्रम करके  हमेशा चली तुम संग मेरे मिलके दर-दर की भटकन,  बनजारों सा जीवन ! तब तुमने था चाहा ये आशियाना ! लगता बुरा था किरायेदार कहलाना! पाई-पाई बचा-बचाके जोड़-जुगाड़ सभी लगाके उम्र भर करते-कमाते आज बुढ़ापे की देहलीज पे आके अब जब बना पाये ये आशियाना तब तक खो चुकी तुम अपनी अनमोल  सेहत का खजाना ! रूग्ण तन शिथिल मन फिर भी कराहकर, कहती मुझे तुम ये घर सजाना ! चलो बन गया अपना भी आशियाना ! पर मैं करूं क्या अब तुम्हारे बिना ? तेरी कराह पर तड़पे दिल मेरा ! दुख में हो तुम तो दर्द में हूँ मैं भी, नहीं भा रहा अपना ये आशियाना ! अकेले क्या इसको मैंने सजाना ? तुम बिन नहीं कुछ भी ये आशियाना ! काश मैं तब और सक्षम जो होता ! जीवन तुम्हारा कुछ और होता । आज भी तुम सुखी मुस्कुराती ये आशियाना स्वयं से सजाती हम फिर उसी प्रेम को आज जीते ! बिखरे से सपनों को फिर से स

फ़ॉलोअर