इतना भी न सोचा करो
एक दिन सब ठीक हो जायेगा
अपना ख्याल भी रखा करो
रहते थे तुम्हारे सूखे होंठ
फुर्सत न थी इतनी कि
पी सको पानी के घूँट
अथक ,अनवरत परिश्रम करके
हमेशा चली तुम संग मेरे मिलके
दर-दर की भटकन,
बनजारों सा जीवन
चाहिए था तुम्हें बस अपना आशियाना
लगता बुरा था तब किरायेदार कहलाना....
पाई-पाई बचा-बचाके
जोड़-जुगाड़ सभी लगाके
उम्र भर करते-कमाते
आज बुढ़ापे की देहलीज पे आके
अब जब बना पाये ये आशियाना
तब तक खो चुकी तुम
अपनी अनमोल सेहत का खजाना
रूग्ण देह कराहते हुए भी
कहती मुझे तुम ये घर सजाना
चलो बन गया अपना भी आशियाना !
पर मैं करूं क्या तुम्हारे बिना
कराहती हो तुम तड़पता है ये दिल
दुख में हो तुम तो दर्द में हूँ मैं भी
नहीं भा रहा अपना ये आशियाना
अकेले क्या इसको मैंने सजाना
तुम बिन नहीं कुछ भी ये आशियाना
काश मै तब और सक्षम होता
जीवन तुम्हारा कुछ और होता
आज भी तुम सुखी मुस्कुराती
ये आशियाना खुद से सजाती
हम फिर उसी प्रेम को आज जीते !
ये आशियाना खुद से सजाती
हम फिर उसी प्रेम को आज जीते !
बिखरे से सपनों को फिर से संजोते !!
चित्र; साभार गूगल से
चित्र; साभार गूगल से
2 टिप्पणियां:
बहुत कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ कह दिया इन शब्दों में ...
हार्दिक आभार, संजय जी !
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