मानव मन इतना उद्वेलित क्यों ?
अस्थिर, क्रोधित, विचलित बन,
हद से ज्यादा उत्तेजित क्यों ?
अटल क्यों नहीं ये पर्वत सा,
नहीं आसमां सा सहनशील
स्वार्थ समेटे है बोझिल मन !
नहीं नदियों सा इसमें निस्वार्थ गमन
मात्र मानव को दी प्रभु ने बुद्धिमत्ता !
बुद्धि से मिली वैचारिक क्षमता
इससे पनपी वैचारिक भिन्नता !
वैचारिक भिन्नता से टकराव
टकराव से शुरू समस्याएं ?
उलझी फिर मन से मानवता !
होता है वक्त और कारण
समुद्री ज्वार भाटे का
पर मन के ज्वार भाटे का,
नहीं कोई वक्त नहीं कारण
उद्वेलित मन ढूँढे इसका निवारण !
शान्ति भंग कर देता सबकी,
पहले खुद की,फिर औरों की
विकट समस्या बन जाता है,
विचलित जब हो जाता मन ।
बाबाओं की शरण न जाकर,
कुछ बातों का ध्यान रखें गर
तुलनात्मक प्रवृति से उबरें,
"संतुष्टि, धैर्य" भी अपनाकर
योगासनों का सहारा लेकर,
मानसिक ,चारित्रिक और आध्यात्मिक
मजबूती ,निज मन को देकर
"ज्ञान और आत्मज्ञान" बढायें
मन-मस्तिष्क की अतुलनीय शक्ति से
पुनः सर्व-शक्तिमान बन जायें ।
चित्र : साभार गूगल से -
पढ़िए मन पर आधारित मेरी एक और रचना निम्न लिंक पर -
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (३१-०५-२०२०) को शब्द-सृजन-२३ 'मानवता,इंसानीयत' (चर्चा अंक-३७१८) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
हार्दिक धन्यवाद अनीता जी मेरी रचना साझा करने हेतु।
हटाएंबहुत सुंदर सृजन सखी,सच मानव अगर अपनी दुर्बल भावनाओं पर जीत हासिल कर लें तो विश्व स्वर्ग बन जाए ।
जवाब देंहटाएंसुंदर भाव सार्थक चिंतन।
तहेदिल से धन्यवाद कुसुम जी! उत्साहवर्धन हेतु...
हटाएंसस्नेह आभार।
बहुत सुन्दर सृजन सुधा जी ! रचना में आपने मानव मन की कमजोरियों के साथ-साथ उनको दूर करने का मार्गदर्शन भी किया है । सकारात्मक चिन्तन युक्त रचना ।
जवाब देंहटाएंमन,बुद्धि,मानवता,ज्ञान और आत्मज्ञान पर सटीक एवं सार्थक अभिव्यक्ति। जीवन की दुरूहता को समझने के लिए भारतीय मनीषा में परिष्कृष्त ज्ञान का अक्षय भंडार है जिसे परिमार्जित करने की सतत प्रक्रिया अनवरत चलती रहे।
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