सम्भाले ना सम्भल रहे अब तूफानी जज़्बात

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  किसको कैसे बोलें बोलों, क्या अपने हालात  सम्भाले ना सम्भल रहे अब,तूफानी जज़्बात मजबूरी वश या भलपन में, सहे जो अत्याचार जख्म हरे हो कहते मन से , करो तो पुनर्विचार तन मन ताने देकर करते साफ-साफ इनकार, बोले अब न उठायेंगे,  तेरे पुण्यों का भार  तन्हाई भी ताना मारे, कहती छोड़ो साथ सम्भाले ना सम्भल रहे अब तूफानी जज़्बात सबकी सुन सुन थक कानों ने भी सुनना है छोड़ा खुद की अनदेखी पे आँखें भी रूठ गई हैं थोड़ा ज़ुबां लड़खड़ा के बोली अब मेरा भी क्या काम चुप्पी साधे सब सह के तुम कर लो जग में नाम चिपके बैठे पैर हैं देखो, जुड़ के ऐंठे हाथ सम्भाले ना सम्भल रहे अब तूफानी जज़्बात रूह भी रहम की भीख माँगती, दबी पुण्य के बोझ पुण्य भला क्यों बोझ हुआ, गर खोज सको तो खोज खुद की अनदेखी है यारों, पापों का भी पाप ! तन उपहार मिला है प्रभु से, इसे सहेजो आप ! खुद के लिए खड़े हों पहले, मन मंदिर साक्षात सम्भाले ना सम्भल रहे अब तूफानी जज़्बात ।। 🙏सादर अभिनंदन एवं हार्दिक धन्यवादआपका🙏 पढ़िए मेरी एक और रचना निम्न लिंक पर .. ●  तुम उसके जज्बातों की भी कद्र कभी करोगे

बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला

Mind


बहुत समय से बोझिल मन को 

इस दीवाली खोला

भारी भरकम भरा था उसमें 

उम्मीदों का झोला

कुछ अपने से कुछ अपनों से 

उम्मीदें थी पाली

कुछ थी अधूरी, कुछ अनदेखी 

कुछ टूटी कुछ खाली

बड़े जतन से एक एक को , मैंने आज टटोला

बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला


दीप जला करके आवाहन, 

माँ लक्ष्मी से बोली

मनबक्से में झाँकों तो माँ !

भरी दुखों की झोली

क्या न किया सबके हित, 

फिर भी क्या है मैने पाया

क्यों जीवन में है मंडराता , 

ना-उम्मीदी का साया ?

गुमसुम सी गम की गठरी में, हुआ अचानक रोला

बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला


प्रकट हुई माँ दिव्य रूप धर, 

स्नेहवचन फिर बोली

ये कैसा परहित बोलो, 

जिसमें उम्मीदी घोली

अनपेक्षित मन भाव लिए जो ,

भला सभी का करते

सुख, समृद्धि, सौहार्द, शांति से, 

मन की झोली भरते

मिले अयाचित सब सुख उनको, मन है जिनका भोला

बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला


मैं माँ तुम सब अंश मेरे, 

पर मन मजबूत रखो तो

नहीं अपेक्षा रखो किसी से, 

निज बल स्वयं बनो तो

दुख का कारण सदा अपेक्षा, 

मन का बोझ बढ़ाती

बदले में क्या मिला सोचकर, 

हीन भावना लाती

आज समर्पण कर दो मुझको, उम्मीदों का झोला

बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला


करो स्वयं पर राज आज से 

स्व-शासक बन जाओ

कुछ ना चाहिए हमें किसी से, 

मन ये भाव जगाओ

तुम दाता सम्पन्न सदा से, 

दया क्षमा के स्वामी

विस्मृत कर दो कही-सुनी, 

मत ढूँढ़ो कुछ भी खामी

अन्य किसी से तुलना में क्यों, मन ये तुम्हारा डोला

बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला


सुन माता की अमृतवाणी, 

तमस हृदय का भागा

बोझिल सा दुबका सोया मन, 

हुआ प्रफुल्लित जागा

छोटी-खोटी सोच मिटी, 

तब नयी मंत्रणा जागी

नवचेतनता फैली मन में, 

अज्ञानता जब भागी

किया समर्पण सदा के लिए, नैराश्यों का झोला

बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला



पढ़िए- एक और रचना निम्न लिंक पर --

● निभा स्वयं से पहला रिश्ता



टिप्पणियाँ

  1. आत्ममंथन को प्रेरित करती अत्यन्त सुन्दर कृति सुधा जी ! सकारात्मक विचारों का सुन्दर आह्वान अति उत्तम भावाभिव्यक्ति ।

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द सोमवार 11 नवंबर 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

    जवाब देंहटाएं
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    1. मेरी रचना को मंच प्रदान करने हेतु हृदयतल से आभार एवं धन्यवाद आदरणीय दिग्विजय जी !

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  3. वाह सुधा जी, सार्थक सन्देश देती बहुत सुन्दर कविता !

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  4. वाह! ब्लॉग के नाम को पूरी तरह चरितार्थ करती अत्यंत उत्कृष्ट रचना। बधाई और आभार हृदय तल से🌹🌹🌹🙏🏼

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    उत्तर
    1. तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आ. विश्वमोहन जी !

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  5. वाह! एक से बढ़कर एक सुंदर पंक्तियों से सुसज्जित सारगर्भित कविता।

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  6. मन में उठने वाले जज्बात लिखे हैं आपने ... निश्छल विचार सदा अच्छे लगते हैं ...

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  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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