ट्रेन में बैठते ही प्रदीप ने अपनी बंद मुट्ठी खोलकर देखी तो आँखों में नमी और होठों में मुस्कुराहट खिल उठी । साथ बैठे दोस्त राजीव ने उसे देखा तो आश्चर्यचकित होकर पूछा, "क्या हुआ ? तू हँस रहा है या रो रहा है " ?
अपनी बंद मुट्ठी को धीरे से खोलकर दो सौ का नोट दिखाते हुए प्रदीप बोला , "ये माँ भी न ! जानती है कि पिचहत्तर हजार तनख्वाह है मेरी । फिर भी ये देख ! ये दो सौ रुपये का नोट मेरी मुट्ठी में बंद करते हुए बोली , रास्ते में कुछ खा लेना" । कहते हुए उसका गला भर आया ।
20 टिप्पणियां:
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार यशोदा जी मेरी रचना पाँच लिंकों के आनंद मंच के लिए चयन करने हेतु ।
माँ होकर जाना माँ क्या होती है
अद्धभुत अनुभूति का सुन्दर वर्णन
वाह
सादर आभार एवं धन्यवाद
🙏🙏🙏🙏
सादर आभार एवं धन्यवाद।
🙏🙏
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरुवार (११-०५-२०२३) को 'माँ क्या गई के घर से परिंदे चले गए'(अंक- ४६६२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
हार्दिक धन्यवाद एवं आभार अनीता जी ! मेरी रचना को चर्चा मंच में स्थान देने के लिए ।
वाह सखी अंतर्मन को छू गई आपकी रचना, हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं आपको
सस्नेह आभार एवं धन्यवाद सखी !
बहुत सुन्दर रचना।
मेरी माँ तो रूपये-पैसे देने के बजाय पूड़ी-सब्ज़ी देते हुए कहती थीं - रास्ते में उल्टा-सीधा ख़रीद कर मत खाइयो.
ये माँ भी न ...... बहुत भावपूर्ण लघुकथा ।
चंद लाइनों में कितनी भावनाएं समेट दी है आपने, दिल को छू गई❣️
बहुत भावपूर्ण
माँ तो माँ होती है .....।बहुत खूब सुधा जी ।
ममता के भाओं से ओतप्रोत रचना
बेहद सुंदर प्रस्तुति
माँ के वात्सल्य के आगे पद,प्रतिष्ठा धन सब छोटे पड़ जाते हैं.
माएँ ऐसी ही होती हैं, प्यारी लघुकथा
मां के इस प्यार का कोई मोल नहीं
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