हैं सृष्टि के दुश्मन यही इंसानियत के दाग भी
चित्र साभार pixabay से |
खामोश क्यों कोयल हुई ?
क्यों मौन है अब राग भी ?
बदल रहा है क्यों समाँ ?
तपने लगा क्यों फाग भी ?
पंछी उड़े उड़ते रहे,
ठूँठ तक ना पा सके ।
श्रीविहीन धरणी में अब,
गीत तक न गा सके ।
उजड़ा सा क्यों चमन यहाँ ?
सूने से क्यों हैं बाग भी ?
सर्द आयी कंपकंपाई,
ग्रीष्म अब तपने लगी ।
षट्ऋतु के अपने देश में,
द्वयऋतु ही क्यों फलने लगी ।
बिगड़ रही बरसात क्यों ?
सिकुड़ा सा क्यों ऋतुराज भी ?
बन सघन अब ना रहे,
क्षीण अति सरिता बहे ।
उगले क्यों सूरज उग्र ताप ?
ऊष्मीकरण ज्यों भू पे श्राप ।
बदल रहे हैं क्यों भला,
रुत के यहाँ मिजाज भी ?
अब भी किसी को ना पड़ी,
जब निकट है संकट घड़ी ।
घर सम्भलता है न जिनसे,
हथिया रहे वे विश्व भी ।
हैं सृष्टि के दुश्मन यही,
इंसानियत के दाग भी ।
टिप्पणियाँ
जब निकट है संकट घड़ी ।
घर सम्भलता है न जिनसे,
हथिया रहे वे विश्व भी ।
हैं सृष्टि के दुश्मन यही,
इंसानियत के दाग भी ।
सामयिक संदर्भ का सटीक चित्रण ।
नव संवत्सर की हार्दिक शुभकामनाएं 💐💐
पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
सस्नेह आभार ।
सुन्दर शुभकामनाएं
ग्रीष्म अब तपने लगी ।
षट्ऋतु के अपने देश में,
द्वयऋतु ही क्यों फलने लगी ।
बिगड़ रही बरसात क्यों ?
सिकुड़ा सा क्यों ऋतुराज भी.... वाह!बहुत बढ़िया कहा 👌
सादर
लेकिन पर्यावरण-संरक्षण और वृक्षारोपण से धन-दौलत या कुर्सी नहीं मिलती.
इन्हें पाने के लिए तो वन उजाड़ कर, पशु-पक्षियों को उनके बसेरे से दूर कर के, उन पर कंक्रीट के जंगल उगाने पड़ते हैं.
जिनको आप सृष्टि का दुश्मन कह रही हैं और इंसानियत पर दाग कह रही हैं, वही तो हमारे देश के भाग्य-विधाता बने बैठे हैं.
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका ।