रविवार, 31 मई 2020

'प्रवासी'

  migrators


मुक्तक---मेरा प्रथम प्रयास
                      (1)
हमें तो गर्व था खुद पे कि हम भारत के वासी हैं
दुखी हैं आज जब जाना यहाँ तो हम प्रवासी हैं
सियासत की सुनो जानो तो बस इक वोट भर हैं हम
सिवा इसके नहीं कुछ भी बस अंत्यज उपवासी हैं
         
                       ( 2)
महामारी के संकट में आज दर-दर भटकते हैं
जो मंजिल थी चुनी खुद ही उसी में अब अटकते हैं
मदद के नाम पर नेता सियासी खेल हैं रचते
कहीं मोहरे कहीं प्यादे बने हम यूँ लटकते हैं

                         (3)
सहारे के दिखावे में जो भावुकता दिखाते हैं
बड़े दानी बने मिलके जो तस्वीरें खिंचाते हैं
सजे से बन्द डिब्बे यों मिले अक्सर हमें खाली
किसी की बेबसी पर भी सियासत ही सजाते हैं

        चित्र गूगल से साभार....

26 टिप्‍पणियां:

  1. वाह!

    पीड़ित मानवता की आह को समेटते प्रभावशाली मुक्तक जो सीधे मर्म को छू लेते हैं।
    बधाई एवं शुभकामनाएँ।
    लिखते रहिए।

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    1. हृदयतल से धन्यवाद रविन्द्र जी!उत्साहवर्धन हेतु...
      सादर आभार।

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  2. पीड़ित मन की व्यथा बताती रचना। हम बस सरकारी दस्तावेजों में एक संख्या बनकर रह गए हैं।

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    1. हृदयतल से धन्यवाद, विकास जी !
      सादर आभार.?

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  3. सादर नमस्कार,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा मंगलवार (02-06-2020) को
    "हमारे देश में मजदूर की, किस्मत हुई खोटी" (चर्चा अंक-3720)
    पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है ।

    "मीना भारद्वाज"

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद मीना जी!चर्चा मंच पर मेरी रचना साझा करने हेतु..
      सस्नेह आभार।

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  4. वाह!!सखी सुधा जी ,बहुत सुंदर ।

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    1. हृदयतल से धन्यवाद, शुभा जी !
      सादर आभार...।

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  5. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, सुधा दी।

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    1. हार्दिक धन्यवाद ज्योति जी!
      सस्नेह आभार।

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  6. वाह ...."किसी की बेबसी पर सियासत ही सजातें हैं"
    लाज़बाब रचना सुधा जी।

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    1. हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार उर्मिला जी!

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  7. अद्भुत.. सभी मुक्तक शानदार👌👌👌👌

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  8. वाह सखी बहुत ही सुन्दर रचना 🙏🌹

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  9. बहुत ही सुन्दर मुक्तक हैं सब्जी .... प्रवासियों के जावन को लक्षित करते भाव को बाखूबी लिखा है आपने इन मुक्तक में ...
    पहला प्रयास है आपका जी बहुत ही सफल है ... ऐसे ही लिखती रहे ...

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    1. जी, नासवा जी!उत्साहवर्धन हेतु बहुत बहुत धन्यवाद आपका...।
      सादर आभार।

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  10. अपने ही घर में बेगाने हो गए
    बड़ी विडम्बना है सियासत का खेल बदस्तूर जारी रहता है
    मरमस्पर्शी प्रस्तुति

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  11. बेहद खूबसूरत मुक्तक सखी 👌👌👌👌

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  12. हमें तो गर्व था खुद पे कि हम भारत के वासी हैं
    दुखी हैं आज जब जाना यहाँ तो हम प्रवासी हैं
    सियासत की सुनो जानो तो बस इक वोट भर हैं हम
    सिवा इसके नहीं कुछ भी बस अंत्यज उपवासी हैं...
    हर मेहनतकश भारतीय की यहीं अंतर्व्यथा है। बहुत सुंदर चित्रण।

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    1. हृदयतल से धन्यवाद आपका आ. विश्वमोहन जी !

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  13. बहुत सुन्दर रचना.... माननीयों की संवेदन शून्यता देखकर दुःख होता है.

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    1. हार्दिक धन्यवाद एवं आभार आ.अनिल जी!
      ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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