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श्राद्ध में करें तर्पण (मनहरण घनाक्षरी)

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  श्राद्ध में करें तर्पण, श्रद्धा मन से अर्पण, पितरों को याद कर, पूजन कराइये । ब्राह्मण करायें भोज, उन्नति मिलेगी रोज, दान, दक्षिणा, सम्मान, शीष भी नवाइये । पिण्डदान का विधान, पितृदेव हैं महान, बैतरणी करें पार  गयाजी तो जाइये । तर्पण से होगी मुक्ति, श्राद्ध है पावन युक्ति, पितृलोक से उद्धार, स्वर्ग पहुँचाइये । पितृदेव हैं महान, श्राद्ध में हो पिण्डदान, जवा, तिल, कुश जल, अर्पण कराइये । श्राद्ध में जिमावे काग, श्रद्धा मन अनुराग, निभा सनातन रीत, पितर मनाइये । पितर आशीष मिले वंश खूब फूले फले , सुख समृद्धि संग, खुशियाँ भी पाइये । सेवा करें बृद्ध जन, बात सुने पूर्ण मन, विधि का विधान जान, रीतियाँ निभाइये । हार्दिक अभिनंदन🙏 पढ़िए एक और मनहरण घनाक्षरी छंद ●  प्रभु फिर आइए

नभ तेरे हिय की जाने कौन

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  नभ ! तेरे हिय की जाने कौन ? ये अकुलाहट पहचाने कौन ? नभ ! तेरे हिय की जाने कौन ? उमड़ घुमड़ करते ये मेघा बूँद बन जब न बरखते हैं स्याह वरण हो जाता तू  जब तक ये भाव नहीं झरते हैं भाव बदली की उमड़-घुमड़ मन का उद्वेलन जाने कौन ? ये अकुलाहट पहचाने कौन ? तृषित धरा तुझे जब ताके कातर खग मृग तृण वन झांके आधिक्य भाव उद्वेलित मन... रवि भी रूठा, बढती है तपन घन-गर्जन तेरा मन मंथन वृष्टि दृगजल हैं,  माने कौन ये अकुलाहट पहचाने कौन ? कहने को दूर धरा से तू पर नाता रोज निभाता है सूरज चंदा तारे लाकर चुनरी धानी तू सजाता है धरा तेरी है धरा का तू ये अर्चित बंधन माने कौन ये अकुलाहट पहचाने कौन ? ऊष्मित धरणी श्वेदित कण-कण आलोड़ित नभ हर्षित तृण-तृण अरुणिम क्षितिज ज्यों आकुंठन ये अमर आत्मिक अनुबंधन सम्बंध अलौकिक माने कौन ये अकुलाहट पहचाने कौन ? नभ तेरे हिय की जाने कौन...?

नोबची

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"ये क्या है मम्मा ! आजकल आप हमसे भी ज्यादा समय अपने पौधों को देते हो"...? शिकायती लहजे में पलक और पल्लवी ने माँ से सवाल किया। "हाँ बेटा !  ये पौधे हैं ही इतने प्यारे...अगर तुम भी इन पर जरा सा ध्यान दोगे न , तो मोबाइल टीवी छोड़कर मेरी तरह इन्हीं के साथ समय बिताना पसन्द करोगे,  आओ मैं तुम्हें इनसे मिलवाती हूँ"....माँ उनका ध्यान खींचते हुए बोली। दोनों  पास आये तो माँ ने उन्हें गमले में उगे पौधे की तरफ इशारा करते हुए कहा  "देखो !  ये है नोबची" नोबची ! ये कैसा नाम है ?...दोनों ने आँख मुँह सिकोड़ते हुए एक साथ पूछा। "हाँ ! नोबची,  और जानते हो इसे नोबची क्यों कहते है" ? "क्यों कहते हैं" ?   उन्होंने पूछा तो माँ बोली, "बेटा ! क्योंकि ठीक नौ बजे सुबह ये पौधा अपने फूल खिलाता है"। हैं !!.नौ बजे !!...हमें भी देखना है।  (दोनों बड़े आश्चर्यचकित एवं उत्साहित थे) और अगली सुबह समय से पहले ही दोनों बच्चे नोबची पर नजर गड़ाए खड़े हो गये। बस नौ बजने ही वाले है दीदी !  हाँ  पलक ! और देख  नोबची भी खिलने लगा है !!!... नोबची की खिलखिलाहट के साथ अपनी बेटियों...

पावन दाम्पत्य निभाने दो

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  अब नहीं प्रेम तो जाने दो जैसा जी चाहे जी लो तुम कर्तव्य मुझे तो निभाने दो अब नहीं प्रेम तो जाने दो हमराही बन के जीवन में चलना था साथ यहाँ मिलके काँटों में खिले कुछ पुष्पों को चुनना था साथ यहाँ मिलके राहों में बिखरे काँटों को साथी मुझको तो उठाने दो... अब नहीं प्रेम तो जाने दो... ये फूल जो अपनी बगिया में  प्रभु के आशीष से पाये हैं नन्हें प्यारे मासूम बहुत दोनों के मन को भाये हैं दोनों की जरुरत है इनको इनका दायित्व निभाने दो अब नहीं प्रेम तो जाने दो.... चंद दिनों के साथ में साथी कुछ पल तो खुशी के बिताये हैं आज की मेरी इन कमियों में वो दिन भी तुमने भुलायें हैं यादों को सहेज लूँ निज दिल में अनबन के पल बिसराने दों अब नहीं प्रेम तो जाने दो.... छोटी - छोटी उलझन में यूँ परिवार छोड़ना उचित नहीं अनबन को सर माथे रखकर घर-बार तोड़ना उचित नहीं इक - दूजे के पूरक बनकर पावन दाम्पत्य निभाने दो अब नहीं प्रेम तो जाने दो...... चित्र साभार, गूगल से....

मोहजाल

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छो टा ही था प्रमोद जब उसके पिता  देहांत हुआ  बस माँ तक सिमटकर रह गयी थी उसकी दुनिया। माँ ने ही उसे पढ़ा- लिखा कर काबिल इंसान बनाया ।    बहुत प्यार और सम्मान था उसकी नजरों में माँ के लिए। माँ की उफ तक सुनकर उसकी तो जैसे रुह ही काँप जाती । बस माँ के इर्द गिर्द ही घूमता रहता । खूब ख्याल रखता माँ का। आखिर माँ के सिवाय उसका था भी कौन। माँ भी बहुत खुश रहती थी उससे।  अपने बेटे की काबिलियत और सेवाभाव का बखान करते करते मन नहीं भरता था उसका । जिससे भी कहती साथ में उसके रिश्ते की भी बात करती ।  बस अब घर बस जाय मेरे प्रमोद का ।  सुन्दर सी लड़की मिले तो हाथ पीले कर अपना फर्ज निभा गंगा नहा आऊँ ।  और सुन ली भगवान ने उसकी । देखते ही देखते रिश्ता पक्का हुआ और फिर चट मँगनी पट ब्याह । प्रमोद अब अपनी दुनिया में व्यस्त हो गया। मोह का जंजाल भी कैसा रचा है न ऊपर वाले ने। जीते जी कहाँ खतम होता है।  पहले बेटे के ब्याह का फिर पोते-पोती का मोह , और फिर उन्हें बड़ा होते हुए देखने का ।  माँ - बेटे की छोटी सी दुनिया अब कुछ पसरने लगी । और साथ ही बदलने लगे प्रेम के एहसास ...

घिंडुड़ी (गौरैया)

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                       चित्र साभार, pixabay.com से.... गढ़वाली भाषा में लिखी मेरी 'पहली कविता' एवं उसका हिन्दी रूपांतरण भी....। हे घिंडुड़ी! दिखे ने तू! बोल घिंडुड़ी कनै गे तू !! छज्जा अडग्यूँ घोल पुराणु कन ह्वे तेकुण सब विराणु एजा घिंडुड़ी ! सतै ना तू बोल घिंडुड़ी कनै गे तू !! झंग्वर सरणा चौक मा दद्दी चूँ-चूँ करीकि वखी ए जदी खतीं झंगरयाल बुखै जै तू बोल घिंडुड़ी कनै गे तू !! त्वे बिना सुन्न हुँईं तिबारी रीति छन कन  गौं-गुठ्यारी छज्जा निसु घोल बणै जै तू बोल घिंडुड़ी कनै गे तू !! बिसकुण सुप्पु उंद सुखणा खैजा कुछ बिखरैजा तू ! बोल घिंडुड़ी कनै गे तू !! हे घिडुड़ी दिखे ने तू ! कख गेई बतै दे तू !! तपती माटी सह नि पायी टावरुन दिशा भटकायी नयार सुखेन त रै ने तू लुकीं छे कख बतै दे तू !! आ घिंडुड़ी! चौक म नाज-पाणि रख्यूँ च हुणतालि डाल्यूँ क छैल कर्यूं च निभा दगड़,  रुलै न तू न जा कखि ,  घर एजा तू एजा घिंडुड़ी ! एजा तू प्यारी घिंडुड़ी!  एजा तू !! प्रस्तुत कविता जाने - माने वरिष्ठ  ब्लॉगर एवं लेखक आदरणीय विकास नैनवाल 'अंजान' जी ...

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