ज्यों घुमड़ते मेघ नभ में, तृषित धरणी रो रही
चित्र साभार pixabay.com से मन विचारों का बवंडर लेखनी चुप सो रही ज्यों घुमड़ते मेघ नभ में तृषित धरणी रो रही अति के मारे सबसे हारे शरण भी किसकी निहारें रक्त के प्यासों से कैसे बचके निकलेंगें बेचारे किसको किसकी है पड़ी इंसानियत जब खो रही हद हुई मतान्धता की शब्द लेते जान हैं कड़क रही हैं बिजलियाँ किसपे गिरे क्या भान है कौन थामें निरंकुशता धारना जब सो रही प्रसिद्धि की है लालसा सर पे है जुनून हावी गीत गाता मंच गूँगा पंगु मैराथन का धावी लायकी बन के यूँ काहिल बोझा गरीबी ढ़ो रही ।।