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आओ बच्चों ! अबकी बारी होली अलग मनाते हैं

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  आओ बच्चों ! अबकी बारी  होली अलग मनाते हैं  जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । ऊँच नीच का भेद भुला हम टोली संग उन्हें भी लें मित्र बनाकर उनसे खेलें रंग गुलाल उन्हें भी दें  छुप-छुप कातर झाँक रहे जो साथ उन्हें भी मिलाते हैं जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । पिचकारी की बौछारों संग सब ओर उमंगें छायी हैं खुशियों के रंगों से रंगी यें प्रेम तरंगे भायी हैं। ढ़ोल मंजीरे की तानों संग  सबको साथ नचाते हैं जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । आज रंगों में रंगकर बच्चों हो जायें सब एक समान भेदभाव को सहज मिटाता रंगो का यह मंगलगान मन की कड़वाहट को भूलें मिलकर खुशी मनाते हैं जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । गुझिया मठरी चिप्स पकौड़े पीयें साथ मे ठंडाई होली पर्व सिखाता हमको सदा जीतती अच्छाई राग-द्वेष, मद-मत्सर छोड़े नेकी अब अपनाते हैं  जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । पढ़िए  एक और रचना इसी ब्लॉग पर ●  बच्चों के मन से

आस का वातावरण फिर, इक नया विश्वास लाया

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आस का वातावरण फिर,  इक नया विश्वास लाया । सो रहे सपनों को उसने, आज फिर से है जगाया । चाँद ज्यों मुस्का के बोला, चाँदनी भी दूर मुझसे । हाँ मैं तन्हा आसमां में, पर नहीं मजबूर खुद से । है अमावश का अंधेरा, पूर्णिमा में खिलखिलाया । आस का वातावरण फिर,  इक नया विश्वास लाया । शूल से आगे निकल कर, शीर्ष पर पाटल है खिलता । रात हो कितनी भी काली, भोर फिर सूरज निकलता । राह के तम को मिटाने, एक जुगनू टिमटिमाया । आस का वातावरण फिर, इक नया विश्वास लाया ।   चाह से ही राह मिलती, मंजिलें हैं मोड़ पर । कोशिशें अनथक करें जो, संकल्प मन दृढ़ जोड़ कर । देख हर्षित हो स्वयं फिर, साफल्य घुटने टेक आया । आस का वातावरण फिर, इक नया विश्वास लाया ।

चंदा मामा कभी उतरकर, धरती पर आ जाओ ना !

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चंदा मामा कभी उतरकर  धरती पर आ जाओ ना ! कैसे मामा हो मामा तुम ? नाता कुछ तो निभाओ ना ! मम्मी के भाई हो मामा ! बहन से मिलने आओ ना ! कभी हमें भी साथ ले जा के  तारों से मिलवाओ ना ! अपने होकर दूर क्यों इतने ? अपनेपन से आओ ना ! रसना, माजा, लिम्का, कोला जी भर के पी जाओ ना ! देखो कितने पर्व धरा पर आकर साथ मनाओ ना ! होली पे आकर के मामा ! रंग गुलाल लगाओ ना ! दीवाली पे पूजन करके, खील बताशे खाओ ना ! चरखी और अनार मजे से सबके साथ छुड़़ाओ ना ! करवाचौथ, ईद पे आके दर्शन आप कराओ ना ! खीर, पुए का भोग भी जी भर  बड़े मजे से खाओ ना ! चंद्रलोक के किस्से मामा ! आकर हमें सुनाओ ना । अपने घट, बढ़, छुप जाने के  राज हमें बतलाओ ना । आना-जाना करो ना मामा ! कुछ सम्बन्ध निभाओ ना ! अगुवानी को हम सब तत्पर, मामी भी संग लाओ ना  ! चंदा मामा कभी उतरकर,  धरती पर आ जाओ ना !               चित्र साभार pixabay से पढ़िए चाँद पर आधारित एक और रचना ●  🌜नन्हें चाँद की जिद्द🌛

शबनम

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  हमेशा की तरह सरला इस बार भी  नवरात्रि में कन्या पूजन के लिए कन्याएं लेने झोपड़पट्टी गयी तो उसकी नजरें शबनम को ढ़ूँढ़ने लगी ।  वही शबनम जो पिछले दो बार के कन्या पूजन के समय ये हिसाब किताब रखती थी कि किसके घर कौन लड़की जायेगी । परन्तु इस बार शबनम कहीं नजर नहीं आई तो सरला सोचने लगी कि कहाँ गयी होगी शबनम ? हाँ क्या कहा था उसने ? दो साल काम करके पैसे जमा करुँगी फिर यहीं किसी अच्छे विद्यालय में दाखिला करवायेंगे बाबा । अच्छा तो दो साल में पैसे जमा हो गये होंगे ,  अब विद्यालय जाती होगी और इस वक्त भी पढ़ रही होगी, वो है ही इतनी लगनशील । परन्तु आज उसे यहाँ लड़कियों के हिसाब की फिकर न हुई , सोचकर सरला मुस्कराने लगी ,  याद करने लगी कि कैसे यहाँ शबनम हाथ में कागज और पैंसिल लिए खड़ी रहती कि कौन लड़की किसके घर भेजनी है सारा हिसाब रखती ...                                                 उस दिन बड़ी जल्दी में थी मैं, सामने ही रंग बिरंगी उतरन पहने एक दूसरे का रिबन...

हैं सृष्टि के दुश्मन यही इंसानियत के दाग भी

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चित्र साभार pixabay से खामोश क्यों कोयल हुई ? क्यों मौन है अब राग भी ? बदल रहा है क्यों समाँ ? तपने लगा क्यों फाग भी ? पंछी उड़े उड़ते रहे, ठूँठ तक ना पा सके । श्रीविहीन धरणी में अब, गीत तक न गा सके । उजड़ा सा क्यों चमन यहाँ ? सूने से क्यों हैं बाग भी ? सर्द आयी कंपकंपाई, ग्रीष्म अब तपने लगी । षट्ऋतु के अपने देश में, द्वयऋतु ही क्यों फलने लगी । बिगड़ रही बरसात क्यों ? सिकुड़ा सा क्यों ऋतुराज भी ? बन सघन अब ना रहे, क्षीण अति सरिता बहे । उगले क्यों सूरज उग्र ताप ? ऊष्मीकरण ज्यों भू पे श्राप । बदल रहे हैं क्यों भला, रुत के यहाँ मिजाज भी ? अब भी किसी को ना पड़ी, जब निकट है संकट घड़ी । घर सम्भलता है न जिनसे, हथिया रहे वे विश्व भी । हैं सृष्टि के दुश्मन यही, इंसानियत के दाग भी ।            

पुस्तक समीक्षा :- तब गुलमोहर खिलता है

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  मन की बंजर भूमि पर, कुछ बाग लगाए हैं । मैंने दर्द को बोकर, अपने गीत उगाए हैं दर्द के बीजों से उगे गीत पढ़ने या सुनने की चाह संम्भवतः उन्हें होगी जो संवेदनशील होंगे भावुक होंगे और कुछ ऐसा पढ़ने की चाह रखते होंगे जो सीधे दिल को छू जाय । यदि आप भी ऐसा कुछ तलाश रहे हैं तो यकीनन ये पुस्तक आपके लिए ही है । श्रृंगार के चरम भावों को छूती इस पुस्तक का नाम है ' तब गुलमोहर खिलता है ' । जी हाँ ! ये अद्भुत काव्य संग्रह ब्लॉग जगत की सुपरिचित लेखिका एवं सुप्रसिद्ध कवयित्री आदरणीया मीना शर्मा जी की तृतीय पुस्तक 'तब गुलमोहर खिलता है' के रूप में साहित्य प्रेमियों के लिए अनुपम भेंट हैं ।  आदरणीया मीना शर्मा जी 2016 से ब्लॉग जगत में ' चिड़िया' नामक ब्लॉग पर कविताएं एवं  'प्रतिध्वनि' ब्लॉग पर गद्य रचनाएं प्रकाशित करती हैं । सौभाग्य से ब्लॉग जगत में ही मेरा परिचय भी आपसे हुआ और मुझे आपकी रचनाओं के आस्वादन करने एवं आपसे बहुत कुछ सीखने समझने के सुअवसर प्राप्त हुए । प्रस्तुत पुस्तक आपकी तृतीय पुस्तक है,  इससे पहले 2018 में प्रथम कविता संग्रह  'अब ना रुकूँगी' और उसके बा...

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