कुछ करने की चाह लिए अस्तित्व की परवाह लिए मन ही मन सोचा करती थी बाहर दुनिया से डरती थी...... भावों में समन्दर सी गहराई हौसले की उड़ान भी थी ऊँची वह कैद चहारदीवारी में भी, सपनों की मंजिल चुनती थी.... जग क्या इसका आधार है क्या ? धरा आसमां के पार है क्या,? अंतरिक्ष छानेगी वह इक दिन ख्वाबों में उड़ाने भरती थी..... हिम्मत कर निकली जब बाहर, देहलीज लाँघकर आँगन तक । आँगन खुशबू से महक उठा, फूलों की बगिया सजती थी........ अधिकार जरा सा मिलते ही, वह अंतरिक्ष तक हो आयी... जल में,थल में,रण कौशल में सक्षमता अपनी दिखलायी....... बल, विद्या, हो या अन्य क्षेत्र इसने परचम अपना फहराया सबला,सक्षम हूँ, अब तो मानो अबला कहलाना कब भाया........ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx जब सृष्टि सृजन की थी शुरूआत सोच - विचार के बनी थी बात....... क्योंकि....... दिल से दूर पुरुष था तब, नाकाबिल, अक्षम, अनायास... सृष्टि सृजन , गृहस्थ जीवन हेतु किया था सफल प्रयास..... पुरूषार्थ जगाने, प्रेम उपजाने, सक्षमता का आभास कराने । कोमलांगी नाजुक गृहणी ब...