तन में मन है या मन में तन ?

चित्र
ये मन भी न पल में इतना वृहद कि समेट लेता है अपने में सारे तन को, और हवा हो जाता है जाने कहाँ-कहाँ ! तन का जीव इसमें समाया उतराता उकताता जैसे हिचकोले सा खाता, भय और विस्मय से भरा, बेबस ! मन उसे लेकर वहाँ घुस जाता है जहाँ सुई भी ना घुस पाये, बेपरवाह सा पसर जाता है। बेचारा तन का जीव सिमटा सा अपने आकार को संकुचित करता, समायोजित करता रहता है बामुश्किल स्वयं को इसी के अनुरूप वहाँ जहाँ ये पसर चुका होता है सबके बीच।  लाख कोशिश करके भी ये समेटा नहीं जाता,  जिद्दी बच्चे सा अड़ जाता है । अनेकानेक सवाल और तर्क करता है समझाने के हर प्रयास पर , और अड़ा ही रहता है तब तक वहीं जब तक भर ना जाय । और फिर भरते ही उचटकर खिसक लेता वहाँ से तन की परवाह किए बगैर । इसमें निर्लिप्त बेचारा तन फिर से खिंचता भागता सा चला आ रहा होता है इसके साथ, कुछ लेकर तो कुछ खोकर अनमना सा अपने आप से असंतुष्ट और बेबस । हाँ ! निरा बेबस होता है ऐसा तन जो मन के अधीन हो।  ये मन वृहद् से वृहद्तम रूप लिए सब कुछ अपने में समेटकर करता रहता है मनमानी । वहीं इसके विपरीत कभी ये पलभर में सिकुड़कर या सिमटकर अत्यंत सूक्ष्म रूप में छिपक...

सब क्या सोचेंगे !

 

Story image clip art mother doughter

"मोना !.. ओ मोना" !... आवाज देते हुए माँ उसके स्टडी रूम में पहुँची तो देखा कि बेटी ने खुली किताब के ऊपर डॉल हाउस सजा रखा और अपनी गुड़िया को सजाने में इतनी तल्लीन है कि ना तो उसे कोई आवाज सुनाई दे रही और ना ही माँ के आने की आहट ।

कल इसकी परीक्षा है और आज देखो इसे ! ये लड़की पढ़ने के नाम पर खेल में बिजी है । गुस्से में माँ ने उसकी बाँह पकड़कर उसे झिझोड़ा तो वो एकदम झसक सी गई  ।

सामने माँ को देखकर आँख बंद कर गहरी साँस ली फिर बोली "ओह ! मम्मी ! आप हो ! मुझे लगा पापा ही पहुँच गए"।

"अच्छा ! पापा का डर और मम्मी ऐवीं" ! गुस्से के कारण माँ की आवाज ऊँची थी ।

"श्श्श...क्या मम्मी ! आपके अंदर पापा की आत्मा घुस गई क्या" ?

"देख मोना ! मुझे गुस्सा मत दिला ! बंद कर ये खेल खिलौने ! और चुपचाप पढ़ने बैठ !  कल तेरी परीक्षा है, कम से कम आज तो मन लगाकर पढ़ ले" !

"वही तो कर रही हूँ मम्मी ! मन बार -बार इसके बारे में सोच रहा था तो सोचा पहले इसे ही तैयार कर लूँ , फिर मन से पढ़ाई करूँगी" ।

"बेटा ! तुझे समझ क्यों नहीं आता ? क्यों नहीं सोचती कि तेरे कम मार्क्स आएंगे तो सब क्या सोचेंगे तेरे बारे में" ?

"ओह्हो मम्मी ! अब ये भी मैं ही सोचूँ ? बस यार मम्मी ! ये सब मुझे नहीं सोचना ! मेरा काम हो गया , अब मैं पढ़ने बैठती हूँ" ।

वह तो अपना डॉल हाउस समेटकर पढ़ने बैठ गई, पर मम्मी कुछ देर तक सोचती रह गई कि "सब क्या सोचेंगे यह भी मैं ही क्यों सोचूँ " ! 

बात समझ आई तो अधरों पर मुस्कान खिल गई ।



पढ़िए ऐसे ही माँ-बेटी के वार्तालाप पर आधारित एक और लघु कथा -

● मम्मा ! मैंने अपने लिए विश नहीं माँगी

टिप्पणियाँ

  1. सचमुच बच्चे मासूम और मनमौजी होते हैं वो कहाँ सोच पाते है उनके द्वारा की गयी गलतियों पर कौन क्या कहेगा उनको तो बस में अपने मम्मी पापा से मतलब।
    सस्नेह प्रणाम दी।
    सादर।
    ----
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार १ अक्टूबर २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सस्नेह आभार प्रिय श्वेता ! आपके इस सहयोग एवं प्रोत्साहन के लिए।

      हटाएं
  2. सस्नेह आभार प्रिय श्वेता ! आपके इस सहयोग एवं प्रोत्साहन के लिए।

    जवाब देंहटाएं
  3. सुधा जी, इस प्यारी सी लघु कथा के लिए धन्यवाद। अभिनंदन।
    "दूसरे क्या सोचेंगे, ये भी मैं ही सोचूँ ?"
    इस मासूम और सहज जवाब में कितनी सच्चाई है ! वास्तव में बच्चों की जुबान पर सरस्वती बैठती हैं।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर, लोग क्या सोचेंगे

    जवाब देंहटाएं
  5. लाख टके की बात !
    माँ-बाप के रूप में हम सबने - 'लोग क्या कहेंगे' की दुहाई दे कर अपने-अपने बच्चों पर कई बार पढ़ाई, फ़ैशन, दोस्ती, शादी वगैरा को ले कर अनावश्यक दबाव डाले हैं.
    एक अध्यापक के रूप में मेरा अनुभव है कि बच्चों पर अगर पढ़ने का दबाव न डाला जाए तो ज़्यादातर बच्चे मन लगा कर पढ़ते हैं.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी, सर ! सही कहा आपने..सारगर्भित प्रतिक्रिया से सृजन को सार्थकता प्रदान करने हेतु तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका । 🙏🙏

      हटाएं
  6. सुन्दर सी लघुकथा के माध्यम से बहुत सुन्दर संदेश सुधा जी ! अति सुन्दर सृजन ।

    जवाब देंहटाएं
  7. अद्भुत लेखन बहुत ही सुंदर लघु कथा

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

फ़ॉलोअर

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला

मन की उलझनें

और एक साल बीत गया