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बीती ताहि बिसार दे

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  स्मृतियों का दामन थामें मन कभी-कभी अतीत के भीषण बियाबान में पहुँच जाता है और भटकने लगता है उसी तकलीफ के साथ जिससे वर्षो पहले उबर भी लिए । ये दुख की यादें कितनी ही देर तक मन में, और ध्यान में उतर कर उन बीतें दुखों के घावों की पपड़ियाँ खुरच -खुरच कर उस दर्द को पुनः ताजा करने लगती हैं।  पता भी नहीं चलता कि यादों के झुरमुट में फंसे हम जाने - अनजाने ही उन दुखों का ध्यान कर रहे हैं जिनसे बड़ी बहादुरी से बहुत पहले निबट भी लिए । कहते हैं जो भी हम ध्यान करते हैं वही हमारे जीवन में घटित होता है और इस तरह हमारी ही नकारात्मक सोच और बीते दुखों का ध्यान करने के कारण हमारे वर्तमान के अच्छे खासे दिन भी फिरने लगते हैं ।  परंतु ये मन आज पर टिकता ही कहाँ है  ! कल से इतना जुड़ा है कि चैन ही नहीं इसे ।   ये 'कल' एक उम्र में आने वाले कल (भविष्य) के सुनहरे सपने लेकर जब युवाओं के ध्यान मे सजता है तो बहुत कुछ करवा जाता है परंतु ढ़लती उम्र के साथ यादों के बहाने बीते कल (अतीत) में जाकर बीते कष्टों और नकारात्मक अनुभवों का आंकलन करने में लग जाता है । फिर खुद ही कई समस्याओं को न्यौता देने...

गुस्सा क्यों हो सूरज दादा

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गुस्सा क्यों हो सूरज दादा ! आग उगलते हद से ज्यादा ! लू की लपटें फेंक रहे हो , आतप अवनी देख रहे हो । छाँव भी डरकर कोने बैठी, रश्मि तपिश दे तनकर ऐंठी । बदरा जाने कहाँ खो गये, पर्णहीन सब वृक्ष हो गये । माँ धरती भी दुःखी रो रही, दया आपकी कहाँ खो गयी ? जल, जलकर बस रेत बची है । अग्निकुंड सी वो भी तची है ! दीन-दुखी को और दुखाते ! नीर नदी का भी क्यों सुखाते ? मेरी मानो सूरज दादा ! मत त्यागो निज नेक इरादा । सूर्य देव हो तुम जगती के ! अर्ध्य देते जल सब भक्ति से । जीव-जगत के हो रखवारे वन्य वनस्पति तुमसे सारे । क्यों गुस्से में लाल हो रहे दीन-हीन के काल हो रहे । इतना भी क्यों गरमाए हो ? दिनचर्या से उकताये हो ? कुछ दिन छुट्टी पर हो आओ ! शीत समन्दर तनिक नहाओ ! करुणाकर ! करुणा अब कर दो ! तप्त अवनि का आतप हर दो ! पढ़िए सूरज दादा पर मेरी एक और रचना ●  कहाँ गये तुम सूरज दादा !

माँ तो माँ है

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माँ का प्यार और समर्थन हमें सिर्फ बचपन में ही नहीं अपितु जीवन के हर संघर्षों में आत्मविश्वास के साथ खड़े होने की हिम्मत देता है । माँ की ममता और आशीर्वाद का एहसास होते ही हर मुश्किल का सामना करना सम्भव हो जाता है । और माँ के पास बैठते ही तमाम संघर्षों की थकन और दर्द छूमन्तर हो जाते हैं । आज मातृ-दिवस पर सभी मातृ-शक्तियों को नमन, वंदन, हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं । बहुत समय बाद कुछ दिनों के लिए माँ का सानिध्य मिला । माँ तो माँ है । मेरी लेखनी में इतना दम कहाँ कि माँ को लिख सकूँ , हाँ ! माँ की दिनचर्या लिखकर यादें संजोने की कोशिश कर रही हूँ ।                        ब च्चे बड़े हुए बेटियाँ विदा हुई बेटे भी नौकरीपेशा हुए । समय बदला , स्थान तक बदल गये । माँ को भी सास , नानी , दादी की डिग्रियां मिली। पर माँ है कि हमेशा माँ ही रही। वैसी ही फिकर , वैसी ही परवाह ,और वैसी ही व्यस्तता ।  कभी बच्चों के खानपान , स्कूल, पढाई के साथ ही गाय- बच्छी और खेत-खलिहान की परवाह तो अब तड़के सुबह फूल, पौधे, चिड़ियों के दाने पानी की परवाह ।  और तो ...

कटता नहीं बक्त, अब नीड़ भी रिक्त

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  वो मंजिल को अपनी निकलने लगे हैं, कदम चार माँ-बाप भी संग चले हैं । बीती उमर के अनुभव बताकर आशीष में हाथ बढ़ने लगे हैं । सुबह शाम हर पल फिकर में उन्हीं की अतीती सफर याद करने लगे ह़ै । सफलता से उनकी खुश तो बहुत हैं मगर दूरियों से मचलने लगे हैं । राहें सुगम हों जीवन सफर की दुआएं सुबह शाम करने लगे हैं । मंदिम लगे जब कभी नूर उनका अर्चन में प्रभु पे बिगड़ने लगे हैं । कटता नहीं वक्त,अब नीड़ भी रिक्त परिंदे जो 'पर' खोल उड़ने लगे हैं । ********** पढ़िए एक और गजल इसी ब्लॉग पर ●  सफर ख्वाहिशों का थमा धीरे-धीरे

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