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सम्भाले ना सम्भल रहे अब तूफानी जज़्बात

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  किसको कैसे बोलें बोलों, क्या अपने हालात  सम्भाले ना सम्भल रहे अब,तूफानी जज़्बात मजबूरी वश या भलपन में, सहे जो अत्याचार जख्म हरे हो कहते मन से , करो तो पुनर्विचार तन मन ताने देकर करते साफ-साफ इनकार, बोले अब न उठायेंगे,  तेरे पुण्यों का भार  तन्हाई भी ताना मारे, कहती छोड़ो साथ सम्भाले ना सम्भल रहे अब तूफानी जज़्बात सबकी सुन सुन थक कानों ने भी सुनना है छोड़ा खुद की अनदेखी पे आँखें भी रूठ गई हैं थोड़ा ज़ुबां लड़खड़ा के बोली अब मेरा भी क्या काम चुप्पी साधे सब सह के तुम कर लो जग में नाम चिपके बैठे पैर हैं देखो, जुड़ के ऐंठे हाथ सम्भाले ना सम्भल रहे अब तूफानी जज़्बात रूह भी रहम की भीख माँगती, दबी पुण्य के बोझ पुण्य भला क्यों बोझ हुआ, गर खोज सको तो खोज खुद की अनदेखी है यारों, पापों का भी पाप ! तन उपहार मिला है प्रभु से, इसे सहेजो आप ! खुद के लिए खड़े हों पहले, मन मंदिर साक्षात सम्भाले ना सम्भल रहे अब तूफानी जज़्बात ।। 🙏सादर अभिनंदन एवं हार्दिक धन्यवादआपका🙏 पढ़िए मेरी एक और रचना निम्न लिंक पर .. ●  तुम उसके जज्बातों की भी कद्र कभी करोगे

असर

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माँजी खाना खा लीजिए न ! ऐसे खाने पर क्यों गुस्सा उतारना ? चलिए न माँजी ! फिर आपकी दवाओं का समय हो रहा है , तबियत बिगड़ जायेगी ! चलिए खाना खा लीजिए न ! कितनी देर से सीमा ऐसे ही अपनी सासू माँ को मना रही थी, पर सासू माँ आज  मुँह फुलाए बैठी थी , आखिर उनके लाडले पोते बंटी को उसके पापा से डाँट जो पड़ गयी थी । बंटी आजकल अपनी दादी के इसी प्यार का गलत फायदा उठा रहा था , कोई भी गलती करता और डाँट पड़े तो दादी से शिकायत ! वह जानता था कि दादी सबको डाँट-डपट कर उसे बचा लेंगी , नतीजतन वह बहुत ही लापरवाह होता जा रहा था । उसका सामान पूरे घर भर में बिखरा रहता । जूते - चप्पल भी वह कभी सही तरीके से सही जगह न रखता । उसका कमरा भी हमेशा अस्त-व्यस्त रहता, किताबें और कपड़े पूरे कमरे में तितर-बितर फैले रहते । सीमा (उसकी माँ) उसके कमरे में बिखरे सामानों को समेटते - समेटते थक जाती और जब भी कभी उसे इस बारे में डाँटती या कुछ भी कहती तो वह साथ-साथ जुबान लड़ाता । माँ को तो जैसे कुछ समझता ही नहीं था । तंग आकर सीमा ने आज उसके पापा से शिकायत कर दी । पापा की डाँट पड़ी तो घड़ियाली आँसू बहा आया दादी से लिपटकर । बस फिर दादी शुर...

वसुधा अम्बर एक हो गये

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दिग-दिग्गज हैं अलसाये से खग मृग भी सब सोये से हैं । थर थर थर है शिशिर काँपती, साग-पात सब रोये से हैं । लता वृक्ष सब मुरझाए से, पात बिछड़ने का झेलें गम । मारी-मारी फिरें तितलियाँ, फूलों का मकरंद गया जम । छुपम-छुपाई खेल रहे रवि, और पवन पुरजोर चल रही । दुबके सोये पता ना चलता, रात कटी कब भोर टल रही । दादुर मोर सभी चुप-चुप हैं, कोयल मैना कहीं खो गये । मौन मिलन आलिंगनबद्ध से वसुधा अम्बर एक हो गये । सकल सृष्टि स्तब्ध खड़ी सी, बाट जोहती ज्यों बसंत का । श्रृंगारित होगी दुल्हन सी, शुभागमन हो रति अनंग का ।

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