मन की उलझनें

चित्र
बेटे की नौकरी अच्छी कम्पनी में लगी तो शर्मा दम्पति खुशी से फूले नहीं समा रहे थे,परन्तु साथ ही उसके घर से दूर चले जाने से दुःखी भी थे । उन्हें हर पल उसकी ही चिंता लगी रहती ।  बार-बार उसे फोन करते और तमाम नसीहतें देते । उसके जाने के बाद उन्हें लगता जैसे अब उनके पास कोई काम ही नहीं बचा, और उधर बेटा अपनी नयी दुनिया में मस्त था ।   पहली ही सुबह वह देर से सोकर उठा और मोबाइल चैक किया तो देखा कि घर से इतने सारे मिस्ड कॉल्स! "क्या पापा ! आप भी न ! सुबह-सुबह इत्ते फोन कौन करता है" ? कॉलबैक करके बोला , तो शर्मा जी बोले, "बेटा ! इत्ती देर तक कौन सोता है ? अब तुम्हारी मम्मी थोड़े ना है वहाँ पर तुम्हारे साथ, जो तुम्हें सब तैयार मिले ! बताओ कब क्या करोगे तुम ?  लेट हो जायेगी ऑफिस के लिए" ! "डोंट वरी पापा ! ऑफिस  बारह बजे बाद शुरू होना है । और रात बारह बजे से भी लेट तक जगा था मैं ! फिर जल्दी कैसे उठता"? "अच्छा ! तो फिर हमेशा ऐसे ही चलेगा" ? पापा की आवाज में चिंता थी । "हाँ पापा ! जानते हो न कम्पनी यूएस"... "हाँ हाँ समझ गया बेटा ! चल अब जल्दी से अपन...

आर्थिक दरकार

financial need
                
               चित्र साभार pixabay.com से


 बड़ी मेहनत से कमाया

इच्छाओं पर अंकुश लगा 

पाई-पाई कर बचाया

कुछ जरूरी जरूरतों के अलावा

नहीं की कभी मन की 

न बच्चों को करने दी

बचपन से ही उन्हें

सर सहलाकर समझाया

और कमी-बेसियों के

संग ही पढाया-लिखाया।

बुढापे की देहलीज में जाते -जाते

अपनी जमापूँजी को बड़े जतन से

बेटी - बेटों में बाँटने के लिए

सपरिवार बैठकर

सबने दिमाग घुमाया

बेटियों के ब्याह में दहेज

का बराबर हिसाब लगाया

बेटियों को विदा कर

बचे - खुचे पैसों में 

बेटे की नौकरी के मार्फत

लोन का जुगाड़ लगाया

दिन-रात एक कर

शहर में दो कमरों का 

छोटा सा घर बनाया

अपनी सफलता पर 

आप ही जश्न मना

दसों रोगों के चलते

असमय ही

विदा ले ली संसार से...


इधर बेटा नई-नई नौकरी

माता-पिता का अंतिम संस्कार

बहन-बहनोइयों का सत्कार

लोन का बोझ ढोते

बड़ा ऐश कर रहा 

लोगों की नजर में........


सुनी-सुनाई कही-कहाई सुन

अब बहनें भी आ धमकी

अपने शहरी घर

कानूनी कागजात लेकर

भाई ! हम भी हैं हिस्सेदार

इस शहरी घर पर 

हमारा भी है अधिकार 

हिस्सा दे हमारा !

 करे भी तो क्या

कानून का मारा ?...


तिस पर ये विभिन्न त्योहार 

रक्षा बंधन फिर भाई दूज

इन्हीं से तो निभता है न

भाई-बहन का पवित्र प्यार!


अब बड़ी आसानी से 

कहते हैं  लोग-बाग

पड़ौसी और रिश्तेदार

माँ-बाप तक ही होता है मायका

भाई बड़ा खुदगर्ज निकला

नहीं उसे  बहिनों से प्यार

मुँह नहीं लगाता उन्हें

हे राम ! माँ-बाप बिना

कैसे सूने हो गये

इन बेचारियों के त्योहार !


क्या करें किसे दोष दें

कौन है इन परिस्थितियों

का जिम्मेदार ?

माँ-बाप और उनके संस्कार ?

या  मध्यम वर्ग की

आर्थिक दरकार ?





टिप्पणियाँ

  1. विचारणीय सवाल सुधा दी। जिसके घर के हालात उसी को पता होते है। लोग तो ऐसे ही कयास लगाकर कुछ भी बोल देते है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी ज्योति जी!सही कहा आपने...
      तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका।

      हटाएं
  2. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (24-09-2021) को "तुम रजनी के चाँद बनोगे ? या दिन के मार्त्तण्ड प्रखर ?" (चर्चा अंक- 4197) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
    धन्यवाद सहित।

    "मीना भारद्वाज"

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. तहेदिल से धन्यवाद मीना जी चर्चा मंच में मेरी रचना साझा करने के लिए।
      सादर आभार।

      हटाएं
  3. बड़ी बिडम्बना है जो भी जी-जान लगाकर कमाते-धमाते हैं माँ-बाप, उसके लिए कई नालायक औलादें आपस में लड़-भिड़ जाते हैं

    सामयिक चिंतनयुक्त मर्मस्पर्शी प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हृदयतल से धन्यवाद आ.कविता जी!सारगर्भित प्रतिक्रिया से रचना का सार स्पष्ट कर उत्साहवर्धन करने हेतु।
      सादर आभार।

      हटाएं
  4. हृदयतल से धन्यवाद आ.यशोदा जी मेरी रचना को सांध्य दैनिक मुखरित मौन के मंच पर साझा करने हेतु।
    सादर आभार।

    जवाब देंहटाएं
  5. माध्यम वर्ग की आर्थिक दरकार ।एक एक शब्द सटीक और मन में उतरते हुए रचना पढ़ी,क्या खूब बयां की एक घरेलू व्यवस्था की राजनीति । एक अहसास का बखूबी चित्रण ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. तहेदिल से धन्यवाद जिज्ञासा जी रचना के मर्रम तक पहुँचने हेतु।
      सस्नेह आभार।

      हटाएं
  6. थोड़ा-सा संस्कार और थोड़ी दरकार।

    जवाब देंहटाएं
  7. मैं समझ सकता हूँ सुधा जी। देखा और भुगता है मैंने। टीका‌-टिप्पणी करने वाले हक़ीक़त क्या जानें? जिस पर बीतती है, वही जानता है। अच्छा यही है कि समक्ष स्थित तथ्यों के अनुरूप उचित निर्णय लिया जाए बिना लोगों के कुछ कहने-सुनने की परवाह किए क्योंकि कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी, सही कहा आपने जिस पर बीतती है वही जानता है।
      हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार आपका।

      हटाएं
  8. क्या करें किसे दोष दें

    कौन है इन परिस्थितियों

    का जिम्मेदार ?

    माँ-बाप और उनके संस्कार ?

    या मध्यम वर्ग की

    आर्थिक दरकार ?

    "ये सवाल" गंभीर चोट करते है मन पर शायद, "मध्यम वर्ग की

    आर्थिक दरकार" बहुत सी समस्याओं को जन्म देता है।
    एक गंभीर चिंतन है आपकी इस सृजन में,सादर नमन सुधा जी

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी कामिनी जी जरूरतें और धनाभाव भी ऐसे कृत्य करवाती है...
      हृदयतलसे धन्यवाद एवं आभार आपका।

      हटाएं
  9. वाह!दी गज़ब।
    मध्यम वर्ग के व्यक्ति की पीड़ा...।
    सच पूरा जीवन समेट दिया आपने... वाह!👌

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार प्रिय अनीता जी!

      हटाएं
  10. सुधा जी निशब्द हूँ मैं आपने सच बयान किया है माता पिता के जाने के बाद पुत्र कौनसी परिस्थितियों से गुजर रहा है कोई देखना नहीं चाहता बस सभी ये आरोप लगाते हैं जैसे माता पिता ने सिर्फ दौलत ही छोड़ी है पीछे, कोई दायित्व नहीं कोई जिम्मेदारियां नहीं ,चुकाने जैसे ऋण नहीं ।
    उसकी ख़ुद की आर्थिक आवश्यकताओं को किसी ने समझा, वो भी उन्हीं परिस्थितियों में से गुजर रहा होता है।

    बड़ी मेहनत से कमा रहा

    इच्छाओं पर अंकुश लगा रहा

    पाई-पाई कर बचा रहा

    कुछ जरूरी जरूरतों के अलावा

    नहीं कर रहा मन की

    न बच्चों को करने दे रहा

    बचपन से ही उन्हें

    सर सहलाकर समझा रहा

    कमी-बेसियों को।

    कौन समझ था है बस दोष मोड़ती है दुनिया जिसमें काफी स्वयं भुक्त होगी होते हैं।
    बस दुसरे के लिए अलग मान दण्ड।
    साधुवाद।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी, आ.कुसुम जी!रचना के मर्म को स्पष्ट करती प्रतिक्रिया हेतु तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका।
      सही कहा आपने लोग दायित्व जिम्मेदारी या ऋण नहीं देखते बस दौलत देखते हैं बेटे के नाम।

      हटाएं
  11. बहुत ही मार्मिक और हृदय स्पर्शी रचना
    मध्य वर्ग का दुख को बहुत ही अच्छे से बयां किया है आपने!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अत्यंत आभार एवं धन्यवाद प्रिय मनीषा जी !

      हटाएं
  12. बहुत ही खूबसूरत रचना दीदी जी

    जवाब देंहटाएं
  13. प्रिय सुधा जी,
    क्या यथार्थ चित्रण किया है आपने मन स्पर्श कर गयी रचना।
    बेटियों का दर्द तो सब देखते हैं पर हर बार बेटा ही गलत हो ये जरूरी नहीं।
    बहन हो या भाई या माता-पिता परिस्थितियों के अनुसार ही व्यवहार तय होते हैं चाहे कोई भी वर्ग हो।
    सारगर्भित अत्यंत प्रभावशाली अभिव्यक्ति।

    सस्नेह।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सही कहा प्रिय श्वेता जी आपने हर बार बेटा ही गलत हो ये जरूरी नहीं...
      सुन्दर सारगर्भित प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन हेतु तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका।

      हटाएं
  14. ना जानूँ मैं दोष किसका?
    श्रम अनर्थक, तोष किसका?

    सुन्दर भाव

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

फ़ॉलोअर

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला

पा प्रियतम से प्रेम का वर्षण

सब क्या सोचेंगे !