बीती ताहि बिसार दे

चित्र
  स्मृतियों का दामन थामें मन कभी-कभी अतीत के भीषण बियाबान में पहुँच जाता है और भटकने लगता है उसी तकलीफ के साथ जिससे वर्षो पहले उबर भी लिए । ये दुख की यादें कितनी ही देर तक मन में, और ध्यान में उतर कर उन बीतें दुखों के घावों की पपड़ियाँ खुरच -खुरच कर उस दर्द को पुनः ताजा करने लगती हैं।  पता भी नहीं चलता कि यादों के झुरमुट में फंसे हम जाने - अनजाने ही उन दुखों का ध्यान कर रहे हैं जिनसे बड़ी बहादुरी से बहुत पहले निबट भी लिए । कहते हैं जो भी हम ध्यान करते हैं वही हमारे जीवन में घटित होता है और इस तरह हमारी ही नकारात्मक सोच और बीते दुखों का ध्यान करने के कारण हमारे वर्तमान के अच्छे खासे दिन भी फिरने लगते हैं ।  परंतु ये मन आज पर टिकता ही कहाँ है  ! कल से इतना जुड़ा है कि चैन ही नहीं इसे ।   ये 'कल' एक उम्र में आने वाले कल (भविष्य) के सुनहरे सपने लेकर जब युवाओं के ध्यान मे सजता है तो बहुत कुछ करवा जाता है परंतु ढ़लती उम्र के साथ यादों के बहाने बीते कल (अतीत) में जाकर बीते कष्टों और नकारात्मक अनुभवों का आंकलन करने में लग जाता है । फिर खुद ही कई समस्याओं को न्यौता देने...

नारी ! अब तेरे कर्तव्य और बढ़ गये.....



old man holding a little plant in his hand with soil

बढ़ रही दरिन्दगी समाज में,
नारी ! तेरे फर्ज और बढ गये 
माँ है तू सृजन है तेरे हाथ में,
अब तेरे कर्तव्य और बढ गये

संस्कृति, संस्कार  रोप बाग में ,
माली तेरे बाग यूँ उजड गये 
दया,क्षमा की गन्ध आज है कहाँ ?
फूल में सुगन्ध आज है कहाँ ?
ममत्व,प्रेम है कहाँँ तू दे रही ?
पशु समान पुत्र बन गये .....
नारी ! तू ही पशुता का नाश कर,
समष्ट सृष्टि का नया विकास कर ।
नारी ! तेरे फर्ज और बढ़ गये
अब तेरे कर्तव्य और बढ़ गये

मशीनरी विकास आज हो रहा ,
मनुष्यता का ह्रास आज हो रहा ।
धर्म-कर्म भी नहीं रहे यहाँ ,
अन्धभक्ति ही पनप रही यहाँ ।
वृद्ध आज आश्रमों  में रो रहे ,
घर गिरे मकान आज हो रहे......
सेवा औऱ सम्मान अब रहा कहाँ ?
घमंड और अपमान ही बचा यहाँ ।
संस्कृति विलुप्त आज हो रही
माँ भारती भी रुग्ण हो के रो रही

माँ भारती की है यही पुकार अब ,
बचा सके तो तू बचा संस्कार अब"।
अनेकता में एकता बनी रहे ..........
बन्धुत्व की अमर कथा बनी रहे ।
अनेक धर्म लक्ष्य सबके एक हों ,
सम्मान की प्राची प्रथा बनी रहे
सत्यता का मार्ग अब दिखा उन्हें
शिष्टता , सहिष्णुता सिखा उन्हेंं
सभ्यता का बीज रोप बाग में
उम्मीद सभी ये ही तुझसे कर रहे

दरिन्दगी मिटा तू ही समाज से,
नारी ! तेरे फर्ज और बढ़ रहे ......
माँ  है तू सृजन है तेरे हाथ में,
अब तेरे कर्तव्य और बढ़ गये


                  चित्र गूगल से साभार.....







टिप्पणियाँ

  1. बिल्कुल सही कहा नारी ही सृजनकर्ता है... और वही इस सृष्टि को विनाश के कगार में जाने से बचा सकती है बहुत ही सारगर्भित रचना...!!👌

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    1. रचना का सार स्पष्ट कर उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया हेतु तहेदिल से धन्यवाद अनीता जी !
      सस्नेह आभार।

      हटाएं
  2. बहुत सुंदर और सार्थक प्रस्तुति सखी

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  3. बहुत सुंदर सृजन सुधा जी।
    सच एक एक पंक्ति जैसे उद्बोधन दे रही है स्तय का, सार्थक प्रस्तुति।

    जवाब देंहटाएं
  4. माफी चाहती हूँ रविन्द्र जी ब्लॉग पर आना न हुआ कुछ कारणों से....
    आपके उत्साह वर्धन एवं सहयोग के लिए तहेदिल से आभारी हूँ।

    जवाब देंहटाएं
  5. यह कैसा नारी-उत्थान है जिसमें कि नारी को दया, ममता, त्याग, बलिदान और कर्तव्य की देवी बता कर कोल्हू के बैल की तरह, बिना कोई विश्राम दिए, जोत दिया जाता है?

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    उत्तर
    1. सर!बात तो सही है आपकी,नारी को बिना विश्राम दिये जोत दिया जाता है कोल्हू के बैल की तरह....।पर सवाल ये है कि कौन जोतता है ?उसकी उत्पति भी तो नारी से ही हुई न...बस यही कविता में कहा है नारी यदि संस्कृति और संस्कार भरे अपनी संतानों में , दया और सहिष्णुता के बीज पनपाये उनके मन में तो आने वाली पीढ़ियों में कोई नारी ना कोल्हू का बैल बने और समाज की अन्य विसंगतियां भी कम हों....।
      आपका हृदयतल से धन्यवाद सर!मेरी रचना को पढ़ने एवं विमर्श हेतु।
      सादर आभार।

      हटाएं

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