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सैनिक, संत, किसान (दोहा मुक्तक)

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सैनिक रक्षा करते देश की, सैनिक वीर जवान । लड़ते लड़ते देश हित, करते निज बलिदान । ओढ़ तिरंगा ले विदा,  जाते अमर शहीद, नमन शहीदों को करे, सारा हिंदुस्तान ।। संत संत समागम कीजिए, मिटे तमस अज्ञान । राह सुगम होंगी सभी, मिले सत्य का ज्ञान । अमल करे उपदेश जो, होगा जीवन धन्य, मिले परम आनंद तब, खिले मनस उद्यान । किसान खून पसीना एक कर , खेती करे किसान । अन्न प्रदाता है वही, देना उसको मान । सहता मौसम मार वह, झेले कष्ट तमाम, उसके श्रम से पल रहा सारा हिंदुस्तान ।         सैनिक, संत, किसान 1) सीमा पर सैनिक खड़े, खेती करे किसान ।    संत शिरोमणि से सदा,  मिलता सबको ज्ञान।    गर्वित इन पर देश है , परहित जिनका ध्येय,    वंदनीय हैं सर्वदा, सैनिक संत किसान ।। 2) सैनिक संत किसान से,  गर्वित हिंदुस्तान ।     फर्ज निभाते है सदा,  लिये हाथ में जान ।     रक्षण पोषण धर्म की,  सेवा पर तैनात,      करते उन्नति देश की,  सदा बढ़ाते मान ।। हार्दिक अभिनंदन आपका 🙏 पढ़िए एक और रचना निम्न लिंक पर ●  मुक्...

हो सके तो समभाव रहें

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जीवन की धारा के बीचों-बीच बहते चले गये, कभी किनारे की चाहना ही न की ।  बतेरे किनारे भाये नजरों को , लुभाए भी मन को ,  पर रुके नहीं कहीं । बहना जो था, फिर क्या रुकते ! कई किनारे अपना ठहराव छोड़ साथ भी आये,  अपनापन दिखाए,कुछ बतियाये,                         फिर कुछ कदम साथ चलकर ठहर गये ।  ऐसे ही कुछ किनारे साथ-साथ चले,  पर साथ नहीं चले !  धारा के मध्य आकर साथ निभाना  शायद मुश्किल था उनके लिए ।  बस किनारे किनारे ही बराबर में दौड़ते रहे, देख-देखकर हँसते-मुस्कराते । हाँ , कहीं उलझनों में उलझा देख, वे भी किनारों पर ठीक सामने ही कुछ ठहरे,  सुलझने की तरकीबें सुझाकर अलविदा बोल  वापस हो लिए अपने ठहराव की ओर ।  आखिर कब तक साथ चलते ! कभी-कभी लगा भी, कि कहीं रुकना था ! तनिक ठहरना था ।  आप-पास,आगे पीछे सब देखा  पर ठहराव मिला ही नहीं।  अपनी तो जड़ें भी मध्य धार में  हिचकोलें खाती बहती चली आ रही थी,  अपने पीछे -पीछे । फिर सोचा ! अब तो तभी ठहरेंगे,  जब मिलेगा...

मरे बिना स्वर्ग ना मिलना

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 कंधे में लटके थैले को खेत की मेंड मे रख साड़ी के पल्लू को कमर में लपेट उसी में दरांती ठूँस बड़े जतन से उस बूढ़े नीम में चढ़कर उसकी अधसूखी टहनियों को काटकर फैंकते हुए वीरा खिन्न मन से अपने में बुदबुदायी, "चल फिर से शुरू करते हैं । हाँ ! शुरू से शुरू करते हैं, एक बार फिर , पहले की तरह"।  फिर धीरे-धीरे उसकी बूढ़ी शाखें पकड़ नीचे उतरी। लम्बी साँस लेकर टहनी कटे बूढ़े नीम को देखकर बोली, "उदास मत हो ,  अब बसंत आता ही है फिर नई कोंपल फूटेंगी तुझ पर । तब दूसरों की परवाह किए बगैर लहलहाना तू, और जेष्ठ में खूब हराभरा बन बता देना इन नये छोटे बड़बोले नीमों को, कि यूँ हरा-भरा बन लहलहाना मैंने ही सिखाया है तुम्हें ! बता देना इन्हें कि बढ़ सको तुम खुलकर इसलिए मैंने अपनी टहनियां मोड़ ली,पत्ते गिरा दिये ,जीर्ण शीर्ण रहकर तुम्हारी हरियाली देख और तुम्हें बढ़ता देख खुश होता रहा पर तुम तो मुझे ही नकचौले दिखाने लगे" ! दराँती को वहीं रखकर कमर में बंधे पल्लू को खोला और बड़े जतन से लपेटते हुए सिर में ओढ़ थैला लिए वीरा चलने को थी कि पड़ोसन ने आवाज लगायी ,  "वीरा ! अरी ओ वीरा ! आज बरसों बाद आखिर काट ही...

जो घर देखा नहीं सो अच्छा

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   एक चिड़िया ने अपने बच्चों को शहर के पॉश इलाकों में घुमाने का प्रोग्राम बनाया । जो उनके नीड़ से काफी दूर था । चिड़िया और उसके नन्हें बच्चे वहाँ जाने के लिए बहुत उत्साहित थे ।  अगले दिन बड़े तड़के सुबह ही उन्होंने उड़ान भर दी । थोड़ी देर में वे सुन्दर आलीशान भवनों और ऊँची -ऊँची इमारतों को देखकर बहुत ही खुश और आश्चर्यचकित थे, और चूँ-चूँ कर अपनी ही भाषा में अपनी माँ से उत्सुकतावश तरह तरह के सवाल कर रहे थे , माँ चिड़िया भी अपने बच्चों को बड़े लाड़ से उनके सवालों के जबाब में ही जीवन के गुर भी सिखाये जा रही थी ।  वहाँ के बाग बगीचे साफ-सुथरे और फूलों से लदे थे , जिन पर तरह तरह की रंग-बिरंगी तितलियों को मंडराते देखकर नन्हीं चिड़ियों की खुशी का तो ज्यों ठिकाना ही न था । और माँ चिड़िया अपने बच्चों (नन्हीं चिड़ियों) की खुशी से अत्यंत खुश थी । वे हर एक चीज को देखते और उसकी तुलना अपने इलाके की चीजों से करते हुए इधर-उधर फुर्- फुर्र उड़े जा रहे थे ।  यूँ ही बतियाते उड़ते - उड़ते वे सभी एक बहुमंजिली इमारत की छत में बनी पानी की टंकियों में बैठे तो वहाँ बने टेरेस गार्डन को देखते ही रह गये ।...

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