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आओ बच्चों ! अबकी बारी होली अलग मनाते हैं

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  आओ बच्चों ! अबकी बारी  होली अलग मनाते हैं  जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । ऊँच नीच का भेद भुला हम टोली संग उन्हें भी लें मित्र बनाकर उनसे खेलें रंग गुलाल उन्हें भी दें  छुप-छुप कातर झाँक रहे जो साथ उन्हें भी मिलाते हैं जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । पिचकारी की बौछारों संग सब ओर उमंगें छायी हैं खुशियों के रंगों से रंगी यें प्रेम तरंगे भायी हैं। ढ़ोल मंजीरे की तानों संग  सबको साथ नचाते हैं जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । आज रंगों में रंगकर बच्चों हो जायें सब एक समान भेदभाव को सहज मिटाता रंगो का यह मंगलगान मन की कड़वाहट को भूलें मिलकर खुशी मनाते हैं जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । गुझिया मठरी चिप्स पकौड़े पीयें साथ मे ठंडाई होली पर्व सिखाता हमको सदा जीतती अच्छाई राग-द्वेष, मद-मत्सर छोड़े नेकी अब अपनाते हैं  जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । पढ़िए  एक और रचना इसी ब्लॉग पर ●  बच्चों के मन से

वितृष्णा - "ये कैसा प्रेम था" ?

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  आज खाना बनाते हुए बार-बार आँखें छलछला रही थी नेहा की। महीने भर से दुखी मन को बामुश्किल ढाँढ़स बँधाती नेहा का दुख जैसे आज फिर से हरा हो गया था जब उसे रमेश (पति) ने बताया कि राघव जी आ रहे हैं तो वही पुरानी यादें सिया के साथ बिताये वो पल और फिर वह भयावह हादसा सब दिमाग में ऐसे घूमने लगे,जैसे अभी-अभी की बात हो ।  दुख भी लाजमी था, सिया सिर्फ सखी ही नहीं बहन सी थी उसके लिए ।  पाँच साल पहले उसके पति का तबादला जब दिल्ली हुआ और नेहा बच्चों सहित यहाँ आई तो कितना अकेलापन महसूस कर रही थी । रमेश तो घर में सामान शिप्ट कर अपने नये ऑफिस और ड्यूटी में व्यस्त हो गये। नेहा अकेले क्या-क्या करे, बच्चों को सम्भाले, कि लाया हुआ सामान सैट करे या फिर मार्केट से राशन-पानी लाकर खाने-पीने की व्यवस्था करे ।  अपने फ्लैट में पहुँचकर वह सोच -सोचकर परेशान थी कि दिल्ली जैसे शहर में पानी भी खरीदकर लाना पड़ेगा और अभी तो ये भी नहीं मालूम कि यहाँ से  मार्केट है कितनी दूर ? तभी डोरबेल की आवाज सुन ये सोचकर दरवाजा खोला कि शायद रमेश आ गये हों छुट्टी लेकर। देखा तो सामने शरबत एवं चाय नाश्ता लेकर कोई अनजा...

जिसमें अपना भला है , बस वो होना है

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जब से खुद को खुद सा ही स्वीकार किया हाँ औरों से अलग हूँ, खुद से प्यार किया । अपने होने के कारण को जब जाना । तेरी रचनात्मकता को कुछ पहचाना । जाना मेरे आस-पास चहुँ ओर है तू। दिखे जहाँ कमजोर वही दृढ़ छोर है तू। ना चाहा फिर बल इतना मैं कभी पाऊँ । तेरे होने के एहसास को खो जाऊँ । दुनिया ने जब जब भी नफरत से टेरा । तूने लाड दे आकर आँचल से घेरा । तेरी पनाह में जो सुख मैंने पाया है  । किसके पास मेरा सा ये सरमाया है  । दुनिया ढूँढ़े मंदिर मस्जिद जा जा के, ना देखे,  तू पास मिरे ही आया है । तेरी प्रणाली को लीला सब कहते हैं । शक्ति-प्रदाता ! निर्बल के बल रहते हैं । अब न कभी अपनी कमियों का रोना है । जिसमें अपना भला है, बस वो होना है । कुछ ऐसा विश्वास हृदय में आया है । माया प्रभु की कहाँ समझ कोई पाया है । सरमाया = धन - दौलत, पूँजी 

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