संदेश

अगस्त, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

धन्य-धन्य कोदंड (कुण्डलिया छंद)

चित्र
💐 विजयादशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं💐 पुरुषोत्तम श्रीराम का, धनुष हुआ कोदंड । शर निकले जब चाप से, करते रोर प्रचंड ।। करते रोर प्रचंड, शत्रुदल थर थर काँपे। सुनकर के टंकार, विकल हो बल को भाँपे ।। कहे सुधा कर जोरि, कर्म निष्काम नरोत्तम । सर्वशक्तिमय राम,  मर्यादा पुरुषोत्तम ।। अति गर्वित कोदंड है,  सज काँधे श्रीराम । हुआ अलौकिक बाँस भी, करता शत्रु तमाम ।। करता शत्रु तमाम, साथ प्रभुजी का पाया । कर भीषण टंकार, सिंधु का दर्प घटाया ।। धन्य धन्य कोदंड, धारते जिसे अवधपति । धन्य दण्डकारण्य, सदा से हो गर्वित अति । सादर अभिनंदन 🙏🙏 पढ़िए प्रभु श्रीराम पर एक और रचना मनहरण घनाक्षरी छंद में ●  आज प्राण प्रतिष्ठा का दिन है

वितृष्णा - "ये कैसा प्रेम था" ?

चित्र
  आज खाना बनाते हुए बार-बार आँखें छलछला रही थी नेहा की। महीने भर से दुखी मन को बामुश्किल ढाँढ़स बँधाती नेहा का दुख जैसे आज फिर से हरा हो गया था जब उसे रमेश (पति) ने बताया कि राघव जी आ रहे हैं तो वही पुरानी यादें सिया के साथ बिताये वो पल और फिर वह भयावह हादसा सब दिमाग में ऐसे घूमने लगे,जैसे अभी-अभी की बात हो ।  दुख भी लाजमी था, सिया सिर्फ सखी ही नहीं बहन सी थी उसके लिए ।  पाँच साल पहले उसके पति का तबादला जब दिल्ली हुआ और नेहा बच्चों सहित यहाँ आई तो कितना अकेलापन महसूस कर रही थी । रमेश तो घर में सामान शिप्ट कर अपने नये ऑफिस और ड्यूटी में व्यस्त हो गये। नेहा अकेले क्या-क्या करे, बच्चों को सम्भाले, कि लाया हुआ सामान सैट करे या फिर मार्केट से राशन-पानी लाकर खाने-पीने की व्यवस्था करे ।  अपने फ्लैट में पहुँचकर वह सोच -सोचकर परेशान थी कि दिल्ली जैसे शहर में पानी भी खरीदकर लाना पड़ेगा और अभी तो ये भी नहीं मालूम कि यहाँ से  मार्केट है कितनी दूर ? तभी डोरबेल की आवाज सुन ये सोचकर दरवाजा खोला कि शायद रमेश आ गये हों छुट्टी लेकर। देखा तो सामने शरबत एवं चाय नाश्ता लेकर कोई अनजा...

जिसमें अपना भला है , बस वो होना है

चित्र
जब से खुद को खुद सा ही स्वीकार किया हाँ औरों से अलग हूँ, खुद से प्यार किया । अपने होने के कारण को जब जाना । तेरी रचनात्मकता को कुछ पहचाना । जाना मेरे आस-पास चहुँ ओर है तू। दिखे जहाँ कमजोर वही दृढ़ छोर है तू। ना चाहा फिर बल इतना मैं कभी पाऊँ । तेरे होने के एहसास को खो जाऊँ । दुनिया ने जब जब भी नफरत से टेरा । तूने लाड दे आकर आँचल से घेरा । तेरी पनाह में जो सुख मैंने पाया है  । किसके पास मेरा सा ये सरमाया है  । दुनिया ढूँढ़े मंदिर मस्जिद जा जा के, ना देखे,  तू पास मिरे ही आया है । तेरी प्रणाली को लीला सब कहते हैं । शक्ति-प्रदाता ! निर्बल के बल रहते हैं । अब न कभी अपनी कमियों का रोना है । जिसमें अपना भला है, बस वो होना है । कुछ ऐसा विश्वास हृदय में आया है । माया प्रभु की कहाँ समझ कोई पाया है । सरमाया = धन - दौलत, पूँजी 

फ़ॉलोअर