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कृषक अन्नदाता है....

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आज पुरानी डायरी हाथ लग गयी,टटोलकर देखा तो यह रचना आज के हालात पर खरी उतरती हुई दिखी ,आज किसानों की स्थिति चिन्ताजनक है। मुझे अब याद नहीं कि तब करीब 30 वर्ष पहले किन परिस्थितियों से प्रभावित होकर मैंने यह रचना लिखी होगी ? कृषकोंं की चिन्ताजनक स्थिति या फिर लोगों में बढ़ती  धनलोलुपता  ? तब परिस्थितियाँ जो भी रही हो, अपने विद्यार्थी जीवन के समय की रचना आप लोगों के साथ साझा कर रही हूँ आप सभी की प्रतिक्रिया के इंतज़ार में- मेरे छुटपन की कविता ! कागज का छोटा सा टुकड़ा (रुपया) पागल बना देता है जन को खेती करना छोड़कर डाकू बना रहा है मन को । इसके लिए ही भाग रहे श्रमिक मजदूर सिपाही इसी के लिए दौड़-भागकर देते हैं सब सुख - चैन को भी तबाही.... हे देश के नवजवानोंं ! सुनो प्रकृति का़ संदेश इसके पीछे मत भागो, यह चंचल अवशेष । कृषकों के मन को भी अगर रुपया भा जायेगा  तो खेती छोड़कर उनको भी दौड़ना ही भायेगा । फिर कृषक जन भी खेती छोड़ रुपया कमायेंगे  तब क्या करेंंगे पूँजीपति , जब अन्न कहीं नहीं पायेंगे ? रुपये को सब कुछ समझने वालों एक बार आजमा लो ! कृषकों की शरण न जाकर तुम, र

" धरती माँ की चेतावनी "

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     मानव तू संतान मेरी   मेरी ममता का उपहास न कर ।   सृष्टि - मोह वश मैंं चुप सहती, अबला समझ अट्टहास न कर ।       सृष्टि की श्रेष्ठ रचना तू !   तुझ पर मैने नाज़ किया ।    कल्पवृक्ष और कामधेनु से , अनमोल रत्नों का उपहार दिया ।  क्षुधा मिटाने अन्न उपजाने,    तूने वक्ष चीर डाला मेरा ।  ममतामयी - माँ  बनकर  मैने,     अन्न दे , साथ दिया तेरा ।     तरक्की के नाम पर तूने , खण्ड -खण्ड किया मुझको ।     नैसर्गिकी छीन ली मेरी ,  फिर भी माफ किया तुझको ।  पर्यावरण प्रदूषित करके तू ,     ज्ञान बढाये जाता है ।  अंतरिक्ष तक जाकर तू ,      विज्ञान बढाये जाता है । वृक्षों को काटकर तू अपनी    इमारत ऊँची करता है । प्राण वायु दूषित कर अब , खुद मास्क पहनकर चलता है । गौमाता को आहार बना तू,   दानव जैसा बन बैठा । चल रहा विध्वंस की राह पर तू ,   सर्वनाशी बनकर ऐंठा । दानव बनकर जब जब तूने , मानवता का धर्म भुलाया । आकर सृष्टि संरक्षण में मैंने, फिर फिर तेरा दर्प मिटाया । अभी वक्त है संभल ले मानव ! खिलवाड़ न कर तू पर्यावरण से । संतुलन बना प्रकृति का आगे, बाहर

सियासत और दूरदर्शिता.....

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                                                            प्रभु श्री राम के रीछ-वानर हों या, श्री कृष्ण जी के ग्वाल - बाल महात्मा बुद्ध के परिव्राजक हों या, महात्मा गाँधी जी के  सत्याग्रही दूरदर्शी थे समय के पारखी थे, समय की गरिमा को पहचाने थे अपनी भूमिका को निखारकर जीवन अपना संवारे थे आजकल भी कुछ नेता बड़े दूरदर्शी हो गये, देखो ! कैसे दल-बदल मोदी -लहर में बह गये इसी को कहते हैं चलती का नाम गाड़ी, गर चल दिया तो हुआ सयाना छूट गया तो हुआ अनाड़ी । नीतीश जी को ही देखिये, कैसे गठबंधन छोड़ बैठे ! व्यामोह के चक्रव्यूह से, कुशलता से निकल बैठे ! दूरदर्शिता के परिचायक नीतीश जी  राजनीति के असली दाँव पेंच चल बैठे। भाजपा का दामन पकड़ अनेक नेता सफल हो गये दल - बदलू बनकर ये सियासत के रंग में रंग लिये बहुत बड़ी बात है,देशवासियों का विश्वासमत हासिल करना ! उससे भी बड़ी बात है विश्वास पर खरा उतरना आगे - आगे देखते हैं भाजपा करती है क्या?  सभी के विश्वास पर खरी भी उतरती है क्या ?                                                                            

*कुदरत की मार*

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देखो ! अब का मनभावन सावन,  कैसे  अस्त-व्यस्त  है जीवन ! कहीं पड़ रही उमस भरी गर्मी,  कहींं मौसम की ज्यादा ही नर्मी..... कहीं भरा है पानी - पानी, कहीं बाढ़ देख हुई हैरानी ! कहीं घर में भर आया पानी , घर छोड़ी फिर मुनिया रानी....... भीगी सारी किताबें उसकी, भीग  गया  जब  बस्ता... कैम्पस में दिन काट रहे, खाने को मिले न खस्ता.... घर पर बछिया छोटी सी बाँधी थी वह  खूँटी  से... वहीं बंधी गौरा(गाय) प्यारी.... दूध निकाले थी महतारी कैसी होगी बछिया बेचारी, क्या सोची होगी गौरा प्यारी....? छोड़ा उनको खुद आ भागे !! उन सबका वहाँ कौन है आगे...? सूखी थी जब नदी गर्मी में तब कचड़ा फैंके थे नदी में....? रास्ता जब नदी का रोका...... पानी ने घर आकर टोका ! मौसम को बुरा कहते अब सब, सावन को "निरा" कहते हैंं सब । मत भूलो अपनी ही करनी है , फिर ये सब खुद ही तो भरनी है...... राजस्थान हुआ बाढ़ से बेहाल, गुजरात  का भी है  बुरा हाल.... पहाड़ों पर हो रहा भूस्खलन..... कहीं बादल फटने का है चलन । "विज्ञान" खड़ा मुँह ताक रहा ! "प

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