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लौट आये फिर कहीं प्यार

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सांझ होने को है, रात आगे खड़ी। बस भी करो अब शिकवे, बात बाकी पड़ी । सुनो तो जरा मन की, वह भी उदास है । ऐसा भी क्या तड़पना अपना जब पास है । ना कर सको प्रेम तो, चाहे झगड़ फिर लो । नफरत की दीवार लाँघो, चाहे उलझ फिर लो । शायद सुलझ भी जाएंं, खामोशियों के ये तार । लौट आयेंं बचपन की यादें, लौट आये फिर कहीं प्यार  ? खाई भी गहरी सी है, चलो पाट डालो उसे । सांझ ढलने से पहले, बगिया बना लो उसे । नन्हींं नयी पौध से फिर, महक जायेगा घर-बार । लौट आयें बचपन की यादें, लौट आये फिर कहीं प्यार ? अहम को बढाते रहोगे, स्वयं को भुलाते रहोगे । वक्त हाथों से फिसले तभी, कर न पाओगे तुम कुछ भी सार । लौट आयें बचपन की यादें लौट आये फिर कहीं प्यार ? ढले साँझ समझे अगर बस सिर्फ पछताओगे बस में न होगा समय फिर क्या तुम कर पाओगे आ भी जाओ जमीं कह रही अब गिरा दो अहम की दीवार लौट आयें बचपन की यादें लौट आये फिर कहीं प्यार ? लौट आओ वहींं से जहाँँ हो, बना लो पुनः परिवार लौट आयेंं बचपन की यादें, लौट आये फिर कहीं प्यार ?                                                  चित्र साभार गूगल से......    

समय तू पंख लगा के उड़ जा......

माँँ !  मुझे भी हॉस्टल में रहना है,मेरे बहुत से दोस्त हॉस्टल में रहते हैं, कितने मजे है उनके !....हर पल दोस्तों का साथ नहीं कोई डाँट-डपट न ही कोई किचकिच । मुझे भी जाना है हॉस्टल, शौर्य अपनी माँ से कहता तो माँ उसे समझाते हुए कहती "बेटा ! जब बड़े हो जाओगे तब तुम्हे भी भेज देंगे हॉस्टल ।फिर तुम भी खूब मजे कर लेना" । समझते समझाते शौर्य कब बड़ा हो गया पता ही नहीं चला, और आगे की पढ़ाई के लिए उसे भी हॉस्टल भेज दिया गया। बहुत अच्छा लगा शुरू-शुरू में शौर्य को हॉस्टल मेंं ।परन्तु जल्दी ही उसे घर और बाहर का फर्क समझ में आने लगा । अब वह घर जाने के लिए छुट्टियों का इन्तजार करता है,और घर व अपनोंं की यादों में कुछ इस तरह गुनगुनाता है । समय तू पंख लगा के उड़ जाकर उस पल को पास ले आ । जब मैंं मिल पाऊँ माँ -पापा से , माँ-पापा मिल पायें मुझसे वह घड़ी निकट तो ला ! समय तू पंख लगा के उड़ जा । छोटे भाई बहन मिलेंगे प्यार से मुझसे, हम खेलेंगे और लडे़ंगे फिर से । वो बचपन के पल फिर वापस ले आ ! समय तू थोड़ा पीछे मुड़ जा ! तब ना थी कोई टेंशन-वेंशन ना था कोई लफड़ा, ना आगे की फि

सुख-दुख

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   दुख एक फर्ज है, फर्ज तो है एहसान नहीं ।   फर्ज है हमारे सर पर, कोई भिक्षा या दान नहीं ।  दुख सहना किस्मत के खातिर, कुछ सुख आता पर दुख आना फिर ।  दुख सहना किस्मत के खातिर ।     दुख ही तो है सच्चा साथी सुख तो अल्प समय को आता है ।     मानव जब तन्हा  रहता है, दुख ही तो साथ निभाता है । फिर दुख से यूँ घबराना क्या ? सुख- दुख में भेद  बनाना क्या ? जीवन है तो सुख -दुख भी हैं, ख्वाबों मे सुख यूँ सजाना क्या ? एक  सिक्के के ही ये दो पहलू सुख तो अभिलाषा में अटका दुख में अटकलें लगाना क्या ?  मानव रूपी अभिनेता हम सुख-दुख अपने किरदार हुए. । जो मिला सहज स्वीकार करें  सुख- दुख में हम इकसार बने ।

कर्तव्य परायणता

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उषा की लालिमा पूरब में नजर आई....... जब  दिवाकर रथ पर सवार, गगन पथ पर बढने लगे..... निशा की विदाई का समय निकट था...... चाँद भी तारों की बारात संग जाने लगे .......... एक दीपक अंधकार से लडता, एकाकी खडा धरा पर..... टिमटिमाती लौ लिए फैला रहा  प्रकाश तब...... अनवरत करता रहा कोशिश वह अन्धकार मिटाने की...... भास्कर की अनुपस्थिति में उनके दिये उत्तदायित्व निभाने की.... उदित हुए दिनकर, दीपक ने मस्तक अपना झुका लिया...... दण्डवत किया प्रणाम ! पुनः कर्तव्य अपना निभा लिया...... हुए प्रसन्न भास्कर ! देख दीपक की कर्तव्य परायणता को...... बोले "पुरस्कृत हो तुम कहो क्या पुरस्कार दें तुमको".......? सहज भाव बोला दीपक, देव ! "विश्वास भर रखना"........ कर्तव्य सदा निभाऊंगा, मुझ पर आश बस रखना....... उत्तरदायित्व मिला आपसे,कर्तव्य मैं निभा पाया....... "कर्तव्य" ही सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार है ,  जो मैने आपसे पाया......

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