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जून, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मन कभी वैरी सा बनके क्यों सताता है

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  मन कभी वैरी सा बन के क्यों सताता है ? दिल दुखी पहले से ही फिर क्यों रुलाता है ? भूलने देता नहीं बीते दुखों को भी आज में बीते को भी क्यों जोड़े जाता है ? हौसला रखने दे, जा, जाने दे बीता कल, आज जो है, बस उसी में जी सकें इस पल । आने वाले कल का भी क्यों भय दिखाता है ? मन कभी वैरी सा बन के क्यों सताता है ? हर लड़ाई पार कर जीवन बढ़े आगे, बुद्धि के बल जीत है, दुर्भाग्य भी भागे । ना-नुकर कर,  क्यों उम्मीदें तोड़ जाता है ? मन कभी वैरी सा बन के क्यों सताता है ? मन तू भी मजबूत हो के साथ देता तो, दृढ़ बन के दुख को आड़े हाथ लेता तो, बेबजह क्यों भावनाओं में डुबाता है ? मन कभी वैरी सा बन के क्यों सताता है ? यंत्र है तन, मन तू यंत्री, रहे नियंत्रित जो पा सके जो चाहे, कुछ भी ना असम्भव हो? फिर निराशा के भँवर में क्यों फँसाता है ? मन कभी वैरी सा बन के क्यों सताता है ?

बरसी अब ऋतुओं की रानी

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बरसी अब ऋतुओं की रानी झटपट सबने छतरी तानी भरने लगा सड़कों पे पानी धरा ने ओढ़ी चूनर धानी नभ में काले बादल  छाये गरज-गरज के इत-उत धाये नाचे मोर पंख फैलाये कोयल मीठी धुन में गाये गर्मी से कुछ राहत पाकर दुनिया सारी चहक उठी बूँदों की सरगोशी सुनकर सोंधी मिट्टी महक उठी पी-पी रटने लगा पपीहा दादुर भी टर -टर बोला झन झन कर झींगुर ने भी  अब अपना मुँह है खोला पल्लव-पुष्पों की मुस्कान हरियाये हैं खेत-खलिहान घर-घर में पकते पकवान हर्षित हो गये सभी किसान ।

सिर्फ गृहिणी !

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नन्हीं सी भव्या ने अभी - अभी स्कूल जाना शुरू  किया, वह रोज कुछ न कुछ बहाने  बनाती, ताकि स्कूल न जाना पड़े ।  आज तो जिद्द पर अड़ गयी कि मुझे डौली (गुड़िया) को भी अपने साथ स्कूल ले जाना है। भावना के बहुत समझाने पर भी जब वह न मानी तो थक -हारकर उसने कहा , "अमित ! ले जाने देते हैं इसे आज गुड़िया स्कूल में, बाद में टीचर समझा बुझाकर बैग में रखवा देंगी । ऐसे रोज - रोज रुलाकर भेजना अच्छा नहीं लगता। है न अमित !  पर अमित ने तो जैसे उसे सुना ही नहीं । बड़े गुस्से में बेटी को झिंझोड़कर उससे गुड़िया छीनकर फेंक दी। डाँट-डपट कर रोती हुई बच्ची को स्कूल छोड़ने चला गया ।   बेटी को रोते हुए जाते देख भावना बहुत दुःखी हुयी , उसका मन किसी काम में नहीं लग रहा था । उसे आज अमित का व्यवहार भी बड़ा अजीब लगा, वह सोचने लगी कैसे पापा हैं अमित ? कैसे झिंझोड़ दिया हमारी नन्हीं सी बच्ची को ! सोचते सोचते वह अपने बचपन की यादों में खो गयी । अपने पापा को याद करने लगी कि एक मेरे पापा थे,  मेरे प्यारे पापा ! उसकी आँखें छलछला गयी उस दिन को याद करके, जब उसने बचपन में कान की एक बाली गुम हो जाने पर बिना बाली स्कूल न जाने की जिद्द ठान

गैरों के हाथों ना सौंप दें ,यारा ! निज जीवन का रिमोट

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जीवन है अपना, आओ स्वयं को  स्वयं ही करना सीखें प्रमोट ! गैरों के हाथों ना सौंप दें, यारा ! निज जीवन का रिमोट ! किसने जाना किन हालों में कैसा जीवन हमने जिया मथकर इससे निकले हलाहल को हमने भी स्वयं पिया मन की सुनके मन के मुताबिक कौन करेगा हमें सपोट  गैरों के हाथों ना सौंप दें, यारा ! निज जीवन का रिमोट ! किसी के शब्दों से आहत मन दुख के समन्दर डूबा जाये गाकर महिमा कोई मन को झाड़ चने की खूब चढ़ाये शब्द छुएं सहमें अंतर्मन  बने ना हम यूँ 'टच मी नॉट' गैरों के हाथों ना सौंप दें यारा !  निज जीवन का रिमोट ! कर दें सबके स्वार्थ सिद्ध तो तारीफें सुन दिन बन जाये ना जो कहें तो, अब तक की करनी में भी पानी फिर जाये फिर दूजों की मर्जी से ही दबते  'सैड या हैप्पी' मोड गैरों के हाथों ना सौंप दें यारा ! निज जीवन का रिमोट ! अपनी कमी-खूबी पहचाने  निज व्यक्तित्व निखारें हम अपनी खुशी अब अपने जिम्मे  जान के जान संवारें हम खुल के जिएं फिर निर्भय होके प्रमुदित मन 'औ' आत्मिक थॉट गैरों के हाथों ना सौंप दें यारा ! निज जीवन का रिमोट !        चित्र, साभार pixabay से...

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