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दिसंबर, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बिटिया का घर बसायें संयम से

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चित्र,साभारShutterstock.com से . "क्या हुआ माँ जी ! आप यहाँ बगीचे में....? और कुछ परेशान लग रही हैं" ? शीला ने सासूमाँ (सरला) को घर के बगीचे में चिंतित खड़ी देखा तो पूछा।  तभी पीछे से सरला का बेटा सुरेश आकर बोला, "माँ !  आप  निक्की को लेकर वही कल वाली बात पर परेशान हैं न ? माँ आप अपने जमाने की बात कर रहे हो, आज जमाना बदल चुका है । आज बेटा बेटी में कोई फर्क नहीं । और पूरे दस दिन से वहीं तो है न निक्की।और कितना रहना, अब एक चक्कर तो अपने घर आना ही चाहिए न। आखिर हमारा भी तो हक है उसपे " । "बस !  तू चुप कर ! बड़ा आया हक जताने वाला... अरे ! अगर वो खुद ही मना कर रही है तो कोई  काम होगा न वहाँ पर...।  कैसे सब छोड़ -छाड़ दौड़ती रहेगी तुम्हारे कहने पर वो " सरला ने डपटते हुए कहा। "वही तो माँ ! काम होगा ! और काम करने के लिए बस हमारी निक्की ही है ? और कोई नहीं उस घर में? नौकरानी नहीं वो बहू है उस घर की।अरे ! उसको भी हक है अपनी मर्जी से जीने का"। सुरेश चिढ़कर बोला।  "हाँ ! हक है ।  किसने कहा कि नहीं है उसका हक ?  हो सकता है उसकी खुद की मर्जी न हो अभी यहाँ आने

पुस्तक समीक्षा - 'कासे कहूँ'

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  मन की महकी गलियों में, बस दो पल हमें भी घर दो ना! लो चंद मोती मेरी पलकों के मुस्कान अधर में भर लो ना! प्यार और मनुहार से अधरों में मुस्कान अर्पण कर ' कासे कहूँ , हिया की बात '  तक  विविधता भरी संवेदना के चरम को छूती पूरी इक्यावन कविताओं का संग्रह  ब्लॉग जगत के स्थापित हस्ताक्षर एवं जाने -माने साहित्यकार पेशेवर इंजीनियर आदरणीय ' विश्वमोहन जी'  के द्वितीय संग्रह ' कासे कहूँ'   के रूप में साहित्य जगत के लिए अनमोल भेंट है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी आदरणीय विश्वमोहन जी एवं उनकी पुस्तक के विषय में विभिन्न शिक्षाविद् भाषाविद् एवं प्रतिष्ठित साहित्यकारों के आशीर्वचन  पुस्तक को और भी आकर्षक बना रहे हैं। प्रस्तुत संग्रह की प्रथम कविता ' सपनों का साज ' ही मन को बाँधकर सपनों की ऐसी दुनिया में ले जाता  है कि पाठक का मन तमाम काम-धाम छोड़ इसकी अन्य सभी रचनाओं के आस्वादन के लिए विवश हो जाता है। चटक चाँदनी की चमचम चंदन का लेप लगाऊँ हर लूँ हर व्यथा थारी मन प्रांतर सहलाऊँ। आ पथिक, पथ में पग-पग- सपनों के साज सजाऊँ।  सहज सरल भाषा में आँचलिकता की मिठास एवं अद्भुत शब्दसंयोजन पा

सेवानिवृत्ति ; पत्नी के भावोद्गार

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चित्र साभार pixabay.com से रिटायरमेंट करीब होने पर जब पति ने पत्नी के मन की जाननी चाही तो एक पत्नी के भावोद्गार.... जब से प्रेम किया तभी से सह रहे हैं विरह वेदना तभी तो विवाहोपरांत युवावस्था में ही बूढ़े हो जाने की चाहना की। बुढ़ापे की चाहना !..? हाँ ! बुढ़ापे की चाहना ! जानते हो क्यों ? क्योंकि हमारे बुढापे में ही तो समाप्त होगी न हमारी  ये विरह वेदना !!... आपकी सेवानिवृत्त होने पर । आज यहाँ कल वहाँ आपका भी न...... कुछ कह भी तो न पायी आपसे क्योंकि जानती हूँ  आप भी ऐसा कहाँ चाहते कभी बस मजबूरी जो थी। प्रेम तो अथाह रहा दूरियों में भी  परन्तु फिर भी  कुछ अधूरा सा रहा रिश्ता हमारा लड़ने-झगड़ने, रूठने मनाने का वक्त जो न मिल पाया है न.... चन्द छुट्टियाँ आपकी  घर गृहस्थी की तमाम उलझनें बड़ी समझदारी से सुलझाते हम प्यार-प्यार में दूर हो गये एक दूसरे से बिन लड़े-झगडे़ बिन रूठे-मनाये ही हमेशा... मानते तो हैं न आप भी । जानती हूँ सेवानिवृत्ति से  आप तो खुश ना होंगे  सभी की तरह पर मैं इन्तजार में हूँ  उस दिन के सदा-सदा से..... बस फिर साथ होंगे हम  हर-लम्हा, हर-पल बहुत हुआ प्यार और समझदारी  अब नासमझी का वक

पुस्तक समीक्षा - 'समय साक्षी रहना तुम'

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  ' 'समय साक्षी रहना तुम' अतल गहराइयों में आत्मा की    जो भरेगा उजास नित - नित गुजर जायेंगे दिन महीने ना होगा आँखों से ओझल किंचित हो न जाऊँ तनिक मैं विचलित प्राणों में धीरज भर देना तुम अपने अनंत प्रवाह में बहना तुम , पर समय साक्षी  रहना तुम!! जी हाँ! दोस्तों! समय साक्षी रहना तुम'  ये ' क्षितिज ' की उजास है जो ब्लॉग जगत से अब साहित्य जगत तक चमकने लगी है। * समय साक्षी रहना तुम*  पूर्णतया साहित्यिक पुस्तक ब्लॉग जगत की प्रतिष्ठित लेखिका एवं मेरी प्रिय सखी परम विदुषी*रेणु बाला जी*की प्रथम पुस्तक के रूप में सभी साहित्य प्रेमियों एवं सुधि पाठकों के लिए एक अनमोल भेंट है। बहुत ही मनमोहक कवर पृष्ठ के साथ प्रथम पेज में लेखिका ने अपने स्नेहमयी एवं संस्कारवान स्वभाव के अनुरूप इसे अपने बड़ों को अपने जीवन का जीवट एवं सशक्त स्तम्भ बताते हुए सादर समर्पित किया है तदन्तर  सुप्रसिद्ध ब्लॉगर एवं स्थापित साहित्यकार अत्यंत सम्मानीय आदरणीय विश्वमोहन जी की चमत्कृत लेखनी से उदृत भूमिका इसकी महत्ता को बढ़ाते हुए इसे और भी रूचिकर बना रही है। साथ हीअन्य प्रसिद्ध ब्लॉगर साथियों के आत्मीय उद्गा

गुलदाउदी--"आशान्वित रहूँगी, अंतिम साँस तक"

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  चित्र, साभार pixabay से यूँ ही ऊबड़-खाबड़ राह में पैरों तले कुचली मलिन सी गुलदाउदी को देखा ... इक्की-दुक्की पत्तियाँ और  कमजोर सी जड़ों के सहारे जिन्दगी से जद्दोजहद करती जीने की ललक लिए... जैसे कहती,  "जडे़ं तो हैं न  काफी है मेरे लिए"... तभी किसी खिंचाव से टूटकर उसकी एक मलिन सी टहनी जा गिरी उससे कुछ दूरी पर अपने टूटे सिरे को  मिट्टी में घुसाती  पनाह की आस लिए जैसे कहती, "माटी तो है न... काफी है मेरे लिए"। उन्हें देख मन बोला, आखिर क्यों और किसलिए  करते हो ये जद्दोजहद ? बचा क्या है जिसके लिए  सहते हो ये सब? अरे! तुमपे ऊपर वाले की कृपा तो क्या ध्यान भी न होगा । नहीं पनप पाओगे तुम कभी ! छोड़ दो ये आशा... !! पर नहीं वह तो पैर की  हर कुचलन से उठकर  जैसे बोल रही थी , "आशान्वित रहूँगी,अंतिम साँस तक" व्यंग उपेक्षा और तिरोभाव  की हंसी हँस आगे बढ़  छोड़ दिया उसे मन ने फिर कभी न मिलने  न देखने के लिए। बहुत दिनों बाद पुनः जाना हुआ  उस राह तो देखा !! गुलदाउदी उसी हाल में  पर अपनी टहनियां बढ़ा रही दूर बिखरी वो टहनी भी  वहीं जड़ पकड़ जैसे परिवार संग मुस्कुरा रही ् अब कुछ ना पूछ

चल जिंदगी तुझको चलना ही होगा

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  चित्र, साभार pixabay से.. हर इक इम्तिहा से गुजरना ही होगा चल जिंदगी तुझको चलना ही होगा  रो-रो के काटें , खुशी से बिताएं   है जंग जीवन,तो लड़ना ही होगा बहुत दूर साहिल, बड़ी तेज धारा संभलके भंवर से निकलना ही होगा शरद कब तलक गुनगुनी यूँ रहेगी धरा को कुहासे से पटना ही होगा मधुमास मधुरिम सा महके धरा पर तो पतझड़ से फिर-फिर गुजरना ही होगा ये 'हालात' मौसम से, बनते बिगड़ते डर छोड़ डट आगे बढ़ना ही होगा बिखरना नहीं अब निखरना है 'यारा' कनक सा अगन में तो तपना होगा ।।

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