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सितंबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

चुप सो जा...मेरे मन ...चुप सो जा..!!!

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             रात छाई हैघनी, पर कल सुबह होनी नयी,         कर बन्द आँखें , रख  सब्र तू ,             मत रो ,मुझे न यूँ सता....... *चुप सो जा........मेरे मन.......चुप सो जा*.....!!!       तब तक तू चुप सोया ही रह !      जब तक न हो जाये सुबह ;    नींद में सपनों की दुनिया तू सजा ......... *चुप सो जा.........मेरे मन......चुप सो जा*.......!!!        सोना जरुरी है, नयी शुरुआत करनी है ,       भूलकर सारी मुसीबत, आस भरनी है ;    जिन्दगी के खेल फिर-फिर खेलने तू जा..... *चुप सो जा......मेरे मन........चुप सो जा*............!!!       सोकर जगेगा, तब नया सा प्राण पायेगा ,     जो खो दिया अब तक, उसे भी भूल जायेगा ;    पाकर नया कुछ, फिर पुराना तू यहाँ खो जा....... *चुप सो जा ..........मेरे मन.........चुप सो जा*........!!!      दस्तूर हैं दुनिया के कुछ, तू भी सीख ले ;      है सुरमई सुबह यहाँ,  तो साँझ भी ढ़ले ,     चिलमिलाती धूप है, तो स्याह सी है रात भी....      है तपिश जब दुपहरी,तो छाँव की सौगात भी...      दुःख नरक से लग रहे तो, स्वर्ग भी है जिन्दगी ;      चाह सुख की

जाने कब खत्म होगा ,ये इंतज़ार......

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  ये अमावस की अंधेरी रात तिस पर अनवरत बरसती        ये मुई बरसात  टपक रही मेरी झोपड़ी       की घास-फूस        भीगती सिकुड़ती        मिट्टी की दीवारें       जाने कब खत्म होगा           ये इन्तजार ?       कब होगी सुबह..?            और मिटेगा         ये घना अंधकार !        थम ही जायेगी किसी पल              फिर यह बरसात       तब चमकेंगी किरणें रवि की         खिलखिलाती गुनगुनी सी ।        सूख भी जायेंगी धीरे-धीरे            ये भीगी दीवारें     गुनगुनायेंगी गीत आशाओं के,     मिट्टी की सौंधी खुशबू के साथ ।    झूम उठेगी इसकी घास - फूस की छत            बहेगी जब मधुर बयार  फिर भूल कर सारे गम करेंंगे हम           यूँ पूनम का इंतज़ार !       जब घुप्प  रात्रि में भी          चाँद की चाँदनी में           साफ नजर आयेगी   मेरी झोपड़ी,  अपने अस्तित्व के साथ ।                                                               चित्र - "साभार गूगल से"

आओ बुढ़ापा जिएं ..

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वृद्धावस्था अभिशाप नहीं । यदि आर्थिक सक्षमता है तो मानसिक कमजोर नहीं बनना । सहानुभूति और दया का पात्र न बनकर, मनोबल रखते हुए आत्मविश्वास के साथ वृद्धावस्था को भी जिन्दादिली से जीने की कोशिश जो करते हैंं , वे वृृद्ध अनुकरणीय बन जाते है । मानसिक दुर्बलता से निकलने के लिए यदि कुछ ऐसा सोचें तो - जी लिया बचपन , जी ली जवानी       आओ बुढापा जिएं । यही तो समय है, स्वयं को निखारेंं      जानेंं कि हम कौन हैं ?     कभी नाम पहचान था फिर हुआ काम पहचान अपनी   आगे रिश्तों से जाने गये  सांसारिकता में हम खो गये । ये तन तो है साधन जीवन सफर का     ये पहचान किरदार है इन्हीं में उलझकर क्या जीवन बिताना जरा अब तो जाने ,कहाँँ हमको जाना ? यही तो समय है स्वयं को पहचाने         जाने कि हम कौन हैं ? क्या याद बचपन को करना   क्या फिर जवानी पे मरना     यदि ये मोह माया रहेगी तो फिर - फिर ये काया मिलेगी  भवसागर की लहरों में आकर     क्या डूबना क्या उतरना  ? जरा ध्यान प्रभु का करें हम, आत्मज्ञान खुद को तो दें हम यही तो समय है , स्वयं को निखारें  जाने कि हम कौन हैं  ? अभ

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