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शरद भोर

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 मनहरण घनाक्षरी  मोहक निरभ्र नभ भास्कर विनम्र अब अति मनभावनी ये शरद की भोर है पूरब मे रवि रथ शशि भी गगन पथ  स्वर्णिम से अंबरांत छटा हर छोर हैं सेम फली झूम रही पवन हिलोर बही मालती सुगंध भीनी फैली चहुँ ओर है महकी कुसुम कली विहग विराव भली टपकन तुहिन बिंदु खुशी की ज्यों लोर है लोर - अश्रु 

अक्टूबर के अनाहूत अभ्र

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  हे अक्टूबर के अनाहूत अभ्र !  ये अल्हड़ आवारगी क्यों ? प्रौढ़ पावस की छोड़ वयस्कता  चिंघाड़ों सी गरजन क्यों ? गरिमा भूल रहे क्यों अपनी, डाले आसमान में डेरा । राह शरद की रोके बैठे, जैसे सिंहासन बस तेरा । शरद प्रतीक्षारत देहलीज पे धरणी लज्जित हो बोली, झटपट बरसों बचा-खुचा सब अब खाली कर दो झोली ! शरदचन्द्र पे लगे खोट से चन्द्रप्रभा का कर विलोप अति करते क्यों ऐसे जलधर ! झेल सकोगे शरद प्रकोप ? जाओ अब आसमां छोड़ो ! निरभ्र शरद आने दो! शरदचंद्र की धवल ज्योत्सना  धरती को अब पाने दो !

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