नभ तेरे हिय की जाने कौन
नभ ! तेरे हिय की जाने कौन ?
ये अकुलाहट पहचाने कौन ?
नभ ! तेरे हिय की जाने कौन ?
उमड़ घुमड़ करते ये मेघा
बूँद बन जब न बरखते हैं
स्याह वरण हो जाता तू
जब तक ये भाव नहीं झरते हैं
भाव बदली की उमड़-घुमड़
मन का उद्वेलन जाने कौन ?
ये अकुलाहट पहचाने कौन ?
तृषित धरा तुझे जब ताके
कातर खग मृग तृण वन झांके
आधिक्य भाव उद्वेलित मन...
रवि भी रूठा, बढती है तपन
घन-गर्जन तेरा मन मंथन
वृष्टि दृगजल हैं, माने कौन
ये अकुलाहट पहचाने कौन ?
कहने को दूर धरा से तू
पर नाता रोज निभाता है
सूरज चंदा तारे लाकर
चुनरी धानी तू सजाता है
धरा तेरी है धरा का तू
ये अर्चित बंधन माने कौन
ये अकुलाहट पहचाने कौन ?
ऊष्मित धरणी श्वेदित कण-कण
आलोड़ित नभ हर्षित तृण-तृण
अरुणिम क्षितिज ज्यों आकुंठन
ये अमर आत्मिक अनुबंधन
सम्बंध अलौकिक माने कौन
ये अकुलाहट पहचाने कौन ?
नभ तेरे हिय की जाने कौन...?
टिप्पणियाँ
पर नाता रोज निभाता है
सूरज चंदा तारे लाकर
चुनरी धानी तू सजाता है
धरा तेरी है धरा का तू
ये अर्चित बंधन माने कौन
ये अकुलाहट पहचाने कौन....
बहुत सुन्दर रचना.. सच में नभ के हिये की कौन जान सका है.....
सम्बंध अलौकिक माने कौन
ये अकुलाहट पहचाने कौन....
नभ तेरे हिय की जाने कौन...?
बहुत सुंदर सृजन,सुधा दी।
सादर आभार।
अनमोल प्रतिक्रिया द्वारा उत्साहवर्धन हेतु तहेदिल से शुक्रिया...।
सादर आभार।
बूंदों की अकुलाहट, मिलन की चाह और संवेदना को बाखूबी लिखा है आपने ...
बहुत कमाल का लिखा है !! बादलों के माध्यम से जैसे आकुल मन की व्याकुल भाषा समझा दी । जब बरस नहीं पाते बादल तो श्याम वर्ण हो जाता है , केवल मेघों का ही नहीं शायद प्रकृति और हर जीव जंतु भावों के वेग को संभालते हुए विवर्ण हो जाता है ।।
पूरी रचना के साथ ऐसा लग रहा है कि कुछ इसके पैरलल भी चल रहा है । मानव मन की संवेदनाएँ साथ जुड़ रही हैं ।
बस मन बरस गया ।
सुंदर रचना
जी एकदम सही कहा आपने नभ के हिय के साथ मानव मन की संवेदनाएं...भावों की आत्मा और मंतव्य तक पहुँचने हेतु दिल से शुक्रिया आपका।
सादर..
आलोड़ित नभ हर्षित तृण-तृण
अरुणिम क्षितिज ज्यों आकुंठन
ये अमर आत्मिक अनुबंधन
सम्बंध अलौकिक माने कौन
ये अकुलाहट पहचाने कौन....
सच! सुधा जी आपकी ये रचना जितनी खूबसूरत है, उतना ही मर्म को भी छू गई,लगा जैसे कि आपने नभ का आवाहन करके मानव मन की व्यथा और कथा भी कह दी,यही तो एक कविमन की सुंदर पहचान है, कि बात एक भाव अनेक । सुंदर सृजन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं 🙏🙏💐💐
सस्नेह आभार।
ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
मन का उद्वेलन जाने कौन
ये अकुलाहट पहचाने कौन...
बेहतरीन व लाजवाब सृजन सुधा जी ।
आत्मिक अनुबंधन और अलौकिक सम्बन्धों को अपने आलौकिक भाषा में समेट लिया परत दर परत खुलती हैं नये अर्थ नये भाव लेकर ।
अलौकिक सृजन।
अभिनव अभिराम।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(३१-०७-२०२१) को
'नभ तेरे हिय की जाने कौन'(चर्चा अंक- ४१४२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सस्नेह आभार।
सस्नेह आभार आपका।
ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
चुनरी धानी तू सजाता है
धरा तेरी है धरा का तू
ये अर्चित बंधन माने कौन
ये अकुलाहट पहचाने कौन....बहुत ही अच्छी रचना...।