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जून, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मोहजाल

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छो टा ही था प्रमोद जब उसके पिता  देहांत हुआ  बस माँ तक सिमटकर रह गयी थी उसकी दुनिया। माँ ने ही उसे पढ़ा- लिखा कर काबिल इंसान बनाया ।    बहुत प्यार और सम्मान था उसकी नजरों में माँ के लिए। माँ की उफ तक सुनकर उसकी तो जैसे रुह ही काँप जाती । बस माँ के इर्द गिर्द ही घूमता रहता । खूब ख्याल रखता माँ का। आखिर माँ के सिवाय उसका था भी कौन। माँ भी बहुत खुश रहती थी उससे।  अपने बेटे की काबिलियत और सेवाभाव का बखान करते करते मन नहीं भरता था उसका । जिससे भी कहती साथ में उसके रिश्ते की भी बात करती ।  बस अब घर बस जाय मेरे प्रमोद का ।  सुन्दर सी लड़की मिले तो हाथ पीले कर अपना फर्ज निभा गंगा नहा आऊँ ।  और सुन ली भगवान ने उसकी । देखते ही देखते रिश्ता पक्का हुआ और फिर चट मँगनी पट ब्याह । प्रमोद अब अपनी दुनिया में व्यस्त हो गया। मोह का जंजाल भी कैसा रचा है न ऊपर वाले ने। जीते जी कहाँ खतम होता है।  पहले बेटे के ब्याह का फिर पोते-पोती का मोह , और फिर उन्हें बड़ा होते हुए देखने का ।  माँ - बेटे की छोटी सी दुनिया अब कुछ पसरने लगी । और साथ ही बदलने लगे प्रेम के एहसास भी। माँ के प्रति भी उसका प्यार कम तो नहीं हुआ हाँ

घिंडुड़ी (गौरैया)

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                       चित्र साभार, pixabay.com से.... गढ़वाली भाषा में लिखी मेरी 'पहली कविता' एवं उसका हिन्दी रूपांतरण भी....। हे घिंडुड़ी! दिखे ने तू! बोल घिंडुड़ी कनै गे तू !! छज्जा अडग्यूँ घोल पुराणु कन ह्वे तेकुण सब विराणु एजा घिंडुड़ी ! सतै ना तू बोल घिंडुड़ी कनै गे तू !! झंग्वर सरणा चौक मा दद्दी चूँ-चूँ करीकि वखी ए जदी खतीं झंगरयाल बुखै जै तू बोल घिंडुड़ी कनै गे तू !! त्वे बिना सुन्न हुँईं तिबारी रीति छन कन  गौं-गुठ्यारी छज्जा निसु घोल बणै जै तू बोल घिंडुड़ी कनै गे तू !! बिसकुण सुप्पु उंद सुखणा खैजा कुछ बिखरैजा तू ! बोल घिंडुड़ी कनै गे तू !! हे घिडुड़ी दिखे ने तू ! कख गेई बतै दे तू !! तपती माटी सह नि पायी टावरुन दिशा भटकायी नयार सुखेन त रै ने तू लुकीं छे कख बतै दे तू !! आ घिंडुड़ी! चौक म नाज-पाणि रख्यूँ च हुणतालि डाल्यूँ क छैल कर्यूं च निभा दगड़,  रुलै न तू न जा कखि ,  घर एजा तू एजा घिंडुड़ी ! एजा तू प्यारी घिंडुड़ी!  एजा तू !! प्रस्तुत कविता जाने - माने वरिष्ठ  ब्लॉगर एवं लेखक आदरणीय विकास नैनवाल 'अंजान' जी द्वारा संपादित ई पत्रिका 'लिख्वार' में प्रकाशित की गई है । 

बिना आपके भला जिंदगी कहाँ सँवरती

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पिता दिवस पर आज आपकी यादें लेकर, हुई लेखनी मौन बस आँखें हैं बरसती । वो बीता बचपन दूर कहीं यादों में झिलमिल झलक आपकी बस माँ की आँखों में मिलती। वीरानी राहों में तन्हा सफर हमारा, हर बढें कदम पर ज्यों शाबाशी आप से मिलती । मन का हौसला बन के हमेशा साथ हो पापा ! बिना आपके भला जिन्दगी कहाँ सँवरती । ना होकर भी सदा अवलम्बन रहे हमारे, पिता से बढ़कर कौन प्रभु की पूजा बनती । हर पल अपने होने का एहसास कराया, मन आल्हादित पर दर्शन को आँख तरसती । हर इक जन्म में पिता आप ही रहें हमारे, काश प्रभु से जीते जी यह आशीष मिलती ।।         चित्र , साभार photopin.com  से...

बदलती सोच 【2】

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आज शीला कुछ और सहेलियों के साथ विमला के घर बिन बताए पहुँची उसे सरप्राइज देने... लेकिन दरवाजे पर उसके पति नीलेश को देख  सभी के मुँह लटक गये...। ओह! नीलेश जी आप! ?...सबके मुँह से एक साथ निकला.... जी ! क्यों... मेरा मतलब ,..नमस्ते... आ..आइए...! आइए न..! आ..आप बाहर क्यों हैं ...नीलेश ने हकलाते हुए कहा। वो... सॉरी नीलेश जी ! हमें लगा कि आप भी अब ऑफिस जाने लगे होंगे...। लॉकडाउन तो अब खत्म हो गया न...।   तो हम विमला से मिलने आ गये बिन बताए......सोचा सरप्राइज देंगे उसे.......पर कोई नहीं हम अभी चलते हैं फिर कभी आयेंगें... माफ करना आपको डिस्टर्ब किया" हिचकिचाते हुए शीला बोली। अरे नहीं ! डिस्टर्ब कैसा !!  डिस्टर्ब जैसी कोई बात ही नहीं !..आप सभी ने बहुत अच्छा किया ..आइए न..... दीजिए उसे सरप्राइज!!..वो पीछे गेस्ट रूम की सफाई कर रही है......। आप सभी को देखकर सचमुच बहुत खुश एवं आश्चर्यचकित हो जायेगी। वैसे भी कब से बोर हो रहे हैं सब घरों में कैद होकर...। (नीलेश उन सब को गेस्ट रूम तक छोड़ आये) अचानक सभी सहेलियों के देखकर विमला सचमुच चौंक गयी,बड़ी खुशी-खुशी हालचाल पूछते हुए सबको बिठाया....। तो एक सखी

पिज्जा का भोग

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  "अभी कोई नहीं खायेगा, पहले मुझे भगवान जी को़ भोग लगाने दो" विक्की डाइनिंग टेबल में रखे पिज्जा से एक पीस उठाते हुए बोला, तो माँ  उसे समझाते हुए बोली ;... "बेटा! ये प्रसाद नहीं जो भोग लगाएं, और किस खुशी में भोग लगाना है तुम्हें....?     बता दिया होता हम थोड़े पेड़े ले आते। पर तुमने तो पिज्जा मंगवाया था न"। "हाँ मम्मी ! पिज्जा ही चाहिए था भगवान जी के लिए। उन्होंने मेरी इतनी बड़ी विश पूरी की, तो पिज्जा तो बनता है न, उनके लिए"....। "अरे ! पिज्जा का भोग कौन लगाता है भला " ?... "वही तो मम्मी ! कोई नहीं लगाता पिज्जा का भोग.....   बेचारे भगवान जी भी तो हमेशा से पेड़े और मिठाई खा- खा के बोर हो गये होंगे ,   हैं न.......। और जब मुझे सेलिब्रेशन के लिए पिज्जा चाहिए तो भगवान जी को वही पुराने पेड़े क्यों "?... "पर बेटा पिज्जा का भोग नहीं लगाते ! वैसे तुम्हारी कौन सी विश पूरी हुई"? माँ ने कोतुहलवश पूछा ;.... "मम्मी ! वो हमारी इंग्लिश टीचर हैं न ...वो चेंज हो गयी हैं, अब वे हमें इंग्लिश नहीं पढायेंगी, इंग्लिश तो क्या वे हमें अब कुछ भी नहीं प

सीख दुनियादारी की

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छि! क्या दुनिया है ?...कैसी दुनिया है?...बड़ी अजीब दुनिया है....ऐसी ही है ये दुनियादारी...!!! लोगों से बार-बार ऐसे शब्द सुन तंग आ गयी दुनिया की रूह! फिर लिया फैसला और चली  हर एक नवजात शिशु को दुनिया में आते ही दुनिया का हाल बताने.......   ताकि उसे न लगे अजीब ये दुनिया....  न हो दुनिया से शिकायत...और न सुनाये वह भी दुनिया को दुनियादारी के ताने...... । वह मिली हर उस नवजातक से.... जो दुनिया और दुनियादारी से बेखबर आँखे मूँदे मन्द-मन्द मुस्करा रहा....बन्द मुट्ठी में लायी अपनी तकदीर को होले होले से घुमा रहा..... नहीं जानता वो दुनिया के दुख-सुख, रिश्ते -नाते.....  और नहीं पता उसे अच्छाई क्या और बुराई क्या....अभी तो मानो विधाता से ही चलती है उसकी गुप्तगू .......  विधाता के सिवा उसके लिए कहीं भी कुछ है ही क्या.... उसके पास जाकर धीरे से बोली ;.....                               "हे नन्हें नाजुक प्यारे से नवजातक ! मुझे सुनो! बड़े ध्यान से सुनो !                                                        जिस दुनिया में आज तुम्हारा अवतरण हुआ है न,        मैं रूह हूँ उसी दुनिया की । और अपनी यानी दुनि

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