पावस में इस बार
गाँवों में बहार आयी
बंझर थे जो खेत वर्षों से
फिर से फसलें लहरायी
हल जो सड़ते थे कोने में
वर्षों बाद मिले खेतों से
बैल आलसी बैठे थे जो
भोर घसाए हल जोतने
गाय भैंस रम्भाती आँगन
बछड़े कुदक-फुदकते हैं
भेड़ बकरियों को बिगलाते
ग्वाले अब घर-गाँव में हैं।
शुक्र मनाएं सौंधी माटी
हल्या अपने गाँव जो आये
कोरोना ने शहर छुड़ाया
गाँव हरेला तीज मनाये
चहल-पहल है पहले वाली
गाँव में रौनक फिर आयी
धान रोपायी कहीं गुड़ाई
पावस रिमझिम बरखा लायी
बिगलाते=बेगल /पृथक करना /झुण्ड में से अपनी -अपनी भेड़ बकरियाँँ अलग करना
घसाए= घास - पानी खिला-पिलाकर तैयार करना
घसाए= घास - पानी खिला-पिलाकर तैयार करना
हल्या=हलधर, खेतों में हल जोतने वाला कृषक
चित्र साभार गूगल से...
टिप्पणियाँ
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार (२६-०७-२०२०) को शब्द-सृजन-३१ 'पावस ऋतु' (चर्चा अंक -३७७४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
हल्या अपने गाँव जो आये
कोरोना ने शहर छुड़ाया
गाँव हरेला तीज मनाये..
बहुत सुन्दर सृजन सुधा जी । वास्तव में इस तरह की.रौनक देखने को कोरोना काल में आँखें तरस गई ।
और अपने अपने मन का कर पाए हैं इस धरती को रोप पाए हैं ... हरियाली तीज मना पाए हैं ...
सुन्दर मोहक रचना आँचल के शब्द लिए ...
गाय भैंस रम्भाती आँगन
बछड़े कुदक-फुदकते हैं
भेड़ बकरियों को बिगलाते
ग्वाले अब घर-गाँव में हैं
बहुत सुंदर पंक्तियाँ।
हल्या अपने गाँव जो आये
कोरोना ने शहर छुड़ाया
गाँव हरेला तीज मनाये
बहुत सुंदर और सार्थक सृजन 👌
ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
हल्या अपने गाँव जो आये
कोरोना ने शहर छुड़ाया
गाँव हरेला तीज मनाये
वाह !!!!!!
पर मैं समझ सकती हूँ आपकी व्यस्तता व अनेक कारणों को.. क्योंकि मैं भी कई बार ऐसी ही स्थिति से गुजरती हूँ चाहकर भी ब्लॉग पर नहीं आ पाती भूले भटके पहुंच भी जाऊं तो पढ़ने भर का समय होता है ऐसे में प्रतिक्रिया छूट जाती है...कोई नहीं सखी हम साथ हैं इतना काफी है आगे कभी न कभी तो स्थिति-परिस्थिति अनुकूल होगी न... फिर देखेंगी तब तक यूँ ही कभी कभार का साथ बनाए रखना...।
आपको व आपके परिवार को जन्माष्टमी की अनन्त शुभकामनाएं।