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जनवरी, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

🌜नन्हेंं चाँद की जिद्🌛

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            भोर हुई पर नन्हें शशि आज आसमान में ही विराजमान हैं         पिता आकाश इससे अनभिज्ञ पुत्र रवि के आगमन की शान में हैं।     माँ धरती प्रतीक्षा में चिन्तित...... पुत्र शशि की राहें ताक रही । कहाँ रह गया नन्हा शशि....... झुक सुदूर तक झाँक रही ।       नन्हा शशि तो जिद्द कर बैठा..... मैं आज नहीं घर जाऊँँगा ।                 याद आती है रवि भैया की...... मैं उनसे यहीं मिल पाऊँँगा । धरती माँ ने भेजा संदेशा..... शशि जल्दी से आओ घर !                   क्रोधित होंगे आकाश पिता...... तुम क्या करते हो राहों पर ?... शीत की ठण्डी में ठिठुरा मैं..... माँ ! काँप रहा हूँ यहाँ थर-थर ।                 भाई रवि मेरे धूप मुफ्त में...... बाँट रहे हैं ,धरती पर । मिलकर उनसे थोड़ी - सी...... गर्माहट भी ले आऊँगा ।                 याद आती है रवि भैया की..... उनसे मिलकर ही घर आऊँँगा ।।       चित्र ;साभार गूगल से...

"कल दे दूंगी.....कसम से"

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सीमा बहुत ही सीधी-सादी लड़की थी,बहुत दूर के गाँव से आती थी स्कूल में पढ़ने..........अकेली वही लड़की थी उस गाँव की...लड़के तो बहुत आते थे वहाँ से....  पर लड़कियों को नहीं पढ़ाते थे वे लोग.... उनके गाँव में तो कोई स्कूल था नहीं, दूर के गाँव भेजकर लड़कियों को पढाना वे ठीक नहीं समझते थे । क्योंकि  बारहवीं तक के स्कूल में कॉलेज से भी बद्तर माहौल था स्कूल दूर होने के कारण बच्चों को देर से पढाना शुरू करते थे । बारहवीं तक पहुँचते-पहुँचते वे विवाह योग्य हो जाते.........। लड़कों  में अक्सर अनुशासनहीनता ज्यादा रहती थी।कुछ बिगड़ैल लड़के स्कूल में दादागिरी करते,जिनके  डर से वहाँ लड़कियों कम ही पढ़ती थी..... सीमा पढ़ने में बहुत ही होशियार थी सबके खिलाफ जाकर उसकी विधवा माँ उसे पढ़ाने भेजती ढ़ेर सारी सीख के साथ।  और सीमा भी माँ की सीख का मान रखने में कोई कसर ना छोड़ती।  जंगल के लम्बे रास्ते आते-जाते ढे़र सारी मुसीबतें पार करते हुए सीमा का बारहवीं का आखिरी साल चल रहा था । कुछ लड़कियों से सीमा की पक्की दोस्ती हो गयी थी इतने सालों में ।  पर अब बारहवीं कक्षा के बाद हमेशा के लिए बिछड़ना था इनसे ।   इसीलिए ये स

चलो बन गया अपना भी आशियाना

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कहा था मैंने तुमसे इतना भी न सोचा करो ! एक दिन सब ठीक हो जायेगा अपना ख्याल भी रखा करो ! सूखे पपड़ाये से रहते तुम्हारे ये होंठ ! फुर्सत न थी इतनी कि पी सको पानी के दो घूँट ! अथक,अनवरत परिश्रम करके  हमेशा चली तुम संग मेरे मिलके दर-दर की भटकन,  बनजारों सा जीवन ! तब तुमने था चाहा ये आशियाना ! लगता बुरा था किरायेदार कहलाना! पाई-पाई बचा-बचाके जोड़-जुगाड़ सभी लगाके उम्र भर करते-कमाते आज बुढ़ापे की देहलीज पे आके अब जब बना पाये ये आशियाना तब तक खो चुकी तुम अपनी अनमोल  सेहत का खजाना ! रूग्ण तन शिथिल मन फिर भी कराहकर, कहती मुझे तुम ये घर सजाना ! चलो बन गया अपना भी आशियाना ! पर मैं करूं क्या अब तुम्हारे बिना ? तेरी कराह पर तड़पे दिल मेरा ! दुख में हो तुम तो दर्द में हूँ मैं भी, नहीं भा रहा अपना ये आशियाना ! अकेले क्या इसको मैंने सजाना ? तुम बिन नहीं कुछ भी ये आशियाना ! काश मैं तब और सक्षम जो होता ! जीवन तुम्हारा कुछ और होता । आज भी तुम सुखी मुस्कुराती ये आशियाना स्वयं से सजाती हम फिर उसी प्रेम को आज जीते ! बिखरे से सपनों को फिर से स

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