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प्रभु फिर आइए

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जग के पालनहार, दीन करते गुहार, लेके अब अवतार, प्रभु फिर आइए । दैत्य वृत्ति बढ़ रही, कुत्सा सर चढ़ रही, प्रीत का मधुर राग, जग को सुनाइए । भ्रष्ट बुद्धि हुई क्रुद्ध, धरा झेल रही युद्ध, सृष्टि के उद्धार हेतु, चक्र तो उठाइए । कर्म की प्रधानता का, धर्म की महानता का, सत्य पुण्य नीति ज्ञान, सब को बताइये । दुष्ट का संहार कर, तेज का विस्तार कर, धुंध के विनाश हेतु, मार्ग तो सुझाइए । बने पुनः विश्व शान्ति, मिटे सभी मन भ्रांति, भक्त हो सुखी सदैव, कृपा बरसाइए । आओ न कृपानिधान, बाँसुरी की छेड़ तान, विधि के विधान अब, पुनः समझाइए  । धर्म की कराने जय, मेंटने संताप भय, दिव्य रुप धार कर, प्रभु फिर आइए । पढ़िये एक और घनाक्षरी छंद.. राम एक संविधान

मैथड - जैसे को तैसा

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 " माँ ! क्या सोच रही हो" ? "कुछ नहीं बेटा ! बस यूँ ही"। "कैसे बस यूँ ही ? आपने ही तो कहा न माँ कि आप मेरी बैस्ट फ्रेंड हैं, और मैं अपनी हर बात आपसे शेयर करूँ" !  "हाँ कहा था,  तो" !...  "तो आप भी तो अपनी बातें मुझसे शेयर करो न ! मैं भी तो आपकी बैस्ट फ्रेंड हुई न..... हैं न माँ"!  "हाँ भई ! मेरी पक्की वाली सहेली है तू भी , और बताउँगी न तुझे अपनी सारी बातें....पहले थोड़ा बड़ी तो हो जा" ! मुस्कराते हुए माँ ने उसके गाल छुए। "मैं बड़ी हो गयी हूँ , माँ ! आप बोलो न अपनी बात मुझसे ! मुझे सब समझ आता है"। हाथों को आपस में बाँधकर बड़ी बड़ी आँखें झपकाते हुए वह माँ के ठीक सामने आकर बोली । "अच्छा ! इतनी जल्दी बड़ी हो गयी" ! (माँ ने हँसकर पुचकारते हुए कहा ) "हाँ माँ ! अब बोलो भी ! उदास क्यों हो ? क्या हुआ"  ? कहते हुए उसने अपने कोमल हाथों से माँ की ठुड्डी पकड़कर ऊपर उठाई । उसका हाथ अपने हाथ में लेकर माँ विचारमग्न सी अपनी ही धुन में बोली, "कुछ खास नहीं बेटा ! बस सोच रही थी कि मैं सबसे प्रेम से बोलती हूँ फिर भी कु

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