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विधना की लिखी तकदीर बदलते हो तुम....

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 हाँ मैं नादान हूँ मूर्ख भी निपट माना मैंंने अपनी नादानियाँ कुछ और बढ़ा देती हूँ तू जो परवाह कर रही है सदा से मेरी खुद को संकट में कुछ और फंसा लेती हूँ वक्त बेवक्त तेरा साथ ना मिला जो मुझे अपने अश्कों से तेरी दुनिया बहा देती हूँ सबकी परवाह में जब खुद को भूल जाती हूँ अपनी परवाह मेंं तुझको करीब पाती हूँ मेरी फिकर तुझे फिर और क्या चाहना है मुझे तेरी ही ओट पा मैं   मौत से टकराती हूँ मैंंने माना मेरे खातिर खुद से लड़ते हो तुम  विधना की लिखी तकदीर बदलते हो तुम मेरी औकात से बढ़कर ही पाया है मैंंने सबको लगता है जो मेरा, सब देते हो तुम कभी कर्मों के फलस्वरूप जो दुख पाती हूँ जानती हूँ फिर भी तुमसे ही लड़ जाती हूँ तेरे रहमोकरम सब भूल के इक पल भर में तेरे अस्तित्व पर ही    प्रश्न मैं उठाती हूँ मेरी भूले क्षमा कर माँ !  सदा यूँ साथ देते हो मेरी कमजोर सी कश्ती हमेशा आप खेते हो कृपा करना सभी पे यूँ  सदा ही मेरी अम्बे! जगत्जननी कष्टहरणी, सभी के कष्ट हरते हो ।।               चित्र ; साभार गूगल से...

आँधी और शीतल बयार

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आँ धी और शीतल बयार,  आपस में मिले इक रोज। टोकी आँधी बयार को  बोली अपना अस्तित्व तो खोज। तू हमेशा शिथिल सुस्त सी, धीरे-धीरे बहती क्यों...? सबके सुख-दुख की परवाह, सदा तुझे ही रहती क्यों...? फिर भी तेरा अस्तित्व क्या, कौन मानता है तुझको..? अरी पगली ! बहन मेरी ! सीख तो कुछ देख मुझको। मेरे आवेग के भय से, सभी  कैसे भागते हैं। थरथराते भवन ऊँचे, पेड़-पौधे काँपते हैं। जमीं लोहा मानती है , आसमां धूल है चाटे। नहीं दम है किसी में भी, जो आ मेरी राह काटे। एक तू है न रौब तेरा जाने कैसे जी लेती है ? डर बिना क्या मान तेरा क्योंं शीतलता देती है ? शान्तचित्त सब सुनी बयार , फिर हौले से मुस्काई..... मैं सुख देकर सुखी बहना! तुम दुख देकर हो सुख पायी। मैं मन्दगति आनंदप्रद, आत्मशांति से उल्लासित। तुम क्रोधी अति आवेगपूर्ण, कष्टप्रद किन्तु क्षणिक। सुमधुर शीतल छुवन मेरी आनंद भरती सबके मन। सुख पाते मुझ संग सभी परसुख में सुखी मेरा जीवन ।।                           चित्र साभार गूगल से...

पेंशन

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  माँ आज सुबह-सुबह तैयार हो गई सत्संग है क्या..?मीना ने पूछा तो सरला बोली; "ना बेटा सत्संग तो नहीं है वो कल रात जब तुम सब सो गये थे न तब मनीष का फोन आया था मेरे मोबाइल पर,   बड़ा पछता रहा था बेचारा, माफी भी मांग रहा था अपनी गलती की... अच्छा ! और तूने माफ कर दिया ..? मेरी भोली माँ !  जरा सोच ना,  पूरे छः महीने बाद याद आई उसे अपनी  गलती....। पता नहीं क्या मतलब होगा उसका..... मतलबी कहीं का..... मीना बोली तो सरला उसे टोकते हुए बोली, "ऐसा नहीं कहते बेटा !  आखिर वो तेरा छोटा भाई है,   चल छोड़ न,....वो कहते हैं न,  'देर आए दुरुस्त आए'  अभी भी एहसास हो गया तो  काफी है। कह रहा था सुबह तैयार रहना मैं लेने आउंगा"....। और तू चली जायेगी माँ! मीना ने पूछा तो  सरला बड़ी खुशी से बोली,  "हाँँ बेटा! यहाँ रहना मेरी मजबूरी है ये तेरा सासरा है,आखिर घर तो मेरा वही है न....। मीना ने बड़े प्यार से माँ के कन्धों को दबाते हुए उन्हें सोफे पर बिठाया और पास में बैठकर बोली; माँ! मैं  तुझे कैसे समझाऊँ कि मैं भी तेरी ही हूँ और ये घर भी.....। तभी फोन की घंटी सुनकर सरला ने पास में रखे झोले को

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