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पौधे---अपनों से

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कुछ पौधे जो मन को थे भाये घर लाकर मैंंने गमले सजाये मन की तन्हाई को दूर कर रहे ये अपनों के जैसे अपने लगे ये । हवा जब चली तो ये सरसराये  मीठी सी सरगम ज्यों गुनगनाये सुवासित सुसज्जित सदन कर रहे ये अपनों के जैसे अपने लगे ये । इक रोज मुझको बहुत क्रोध आया गुस्से में मैंंने इनको बहुत कुछ सुनाया। न रूठे न टूटे मुझपे, स्वस्यचित्त रहे ये अपनों के जैसे अपने लगे ये । खुशी में मेरी ये भी खुशियाँँ मनाते खिला फूल तितली भौंरे सभी को बुलाते उदासीन मन उल्लासित कर रहे ये अपनों के जैसे अपने लगे ये । मुसीबतों में जब मैंने मन उलझाया मेरे गुलाब ने प्यारा पुष्प तब खिलाया आशान्वित मन मेरा कर रहे ये अपनों के जैसे अपने लगे  । धूल भरी आँधी या तूफान आये घर के बड़ों सा पहले ये ही टकरायेंं घर-आँगन सुरक्षित कर रहे ये अपनों के जैसे अपने लगे ये ।                   चित्र साभार गूगल से...

अब भावों में नहीं बहना है....

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जाने कैसा अभिशाप  है ये मन मेरा समझ नहीं पाता है मेरी झोली में आकर तो सोना भी लोहा बन जाता है जिनको मन से अपना माना उन्हीं ने ऐसे दगा दिया यकींं भी गया अपनेपन से तन्हा सा जीवन बिता दिया एक सियासत देश में चलती एक घरों में चलती है भाषण में दम जिसका होता सरकार उसी की बनती है सच ही कहा है यहाँ किसी ने "जिसकी लाठी उसकी भैंस" बड़बोले ही करते देखे हमने इस दुनिया में ऐश नदी में बहने वाले को साहिल शायद मिल भी जाये भावों में बहने वाले को  अब तक "प्रभु" भी ना बचा पाये गन्ने सा मीठा क्या बनना कोल्हू में निचोड़े जाओगे इस रंग बदलती दुनिया में गिरगिट पहचान न पाओगे दुनियादारी सीखनी होगी गर दुनिया में रहना है 'जैसे को तैसा' सीख सखी! अब भावों में नहीं बहना है                                        चित्र;साभार गूगल से....

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