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🕯मन- मंदिर को रोशन बनाएंं🕯

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   मन - मंदिर को रोशन बनाएंं चलो ! एक दिया आज मन मेंं जलाएं, अबकी दिवाली कुछ अलग हम मनाएंं । चलो ! एक दिया आज मन में जलाएं..... मन का एक कोना निपट है अंधेरा, जिस कोने को "अज्ञानता" ने घेरा । अज्ञानता के तम को दूर अब भगाएं  ज्ञान का एक दीप मन में जलाएं,     मन -मंदिर को रोशन बनाएं  । चलो ! एक दिया आज मन में जलाएं...... काम, क्रोध, लोभ, मोह मन को हैं घेरे , जग उजियारा है पर, मन हैं अंधेरे .... रात नजर आती है भरी दोपहरी में , रौशन दिवाली कब है, मन की अंधेरी में ।   प्रेम का एक दीप मन में जलाएं,      मन -मंदिर को रोशन बनाएं । चलो ! एक दिया आज मन में जलाएं....... निराशा न हो मन में, हिम्मत न हार जाएं, चाहे कठिन हो राहेंं, कदम न डगमगाएं ईर्ष्या न हो किसी से,लालच करें नहीं हम, परिश्रम की राह चलकर सन्तुष्टि सभी पाएं   आशा का एक दीप मन में जलाएं        मन-मंदिर को रोशन बनाएं चलो ! एक दिया आज मन में जलाएं  ।। भय, कुण्ठा संदेह भी ,मन को हैं घेरे दुख के बादल छाये ,चहुँओर घनेरे । खुशी का एक दीप मन में जलाएंं     मन मंदिर

आराम चाहिए......

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                                                                                                      आज हर किसी को आराम चाहिए  न हो हाथ मैले,न हो पैर मैले.... ऐसा अब कोई काम चाहिए.... बिन हिले-डुले कुछ नया कर दिखायेंं !! हाँ ! सुर्खियों में अपना अब नाम चाहिए आज हर किसी को आराम चाहिए..... मुश्किलें तो नजर आती हैं सबको बड़ी-बड़ी, स्वयं कुछ कर सकें, ऐसी हिम्मत नहीं पड़ी । सब ठीक करने वाला, अवतारी आये धरा पर, नरतनधारी कोई "श्रीकृष्ण या श्रीराम" चाहिए !! आज हर किसी को आराम चाहिए......... बच्चों को दिखाते हैं, ये अन्तरिक्ष के सपने ! जमीं में नजर आये न इनको कोई अपने जमींं में रखा क्या, मिट्टी से है घृणा ..... पर घर में भरे अन्न के गोदाम चाहिए !! आज हर किसी को आराम चाहिए......... माँ-बाप मुसीबत लग रहे हैंं इनको आज , कटी पतंग सा उड़ रहा है अब समाज । दो शब्द बड़ों के चुभते है शूल से ! मेहनत करें भी कैसे,नाजुक हैं फूल से....? आज को यूँ ही गवां रहे तो क्या....? "कल मिलेगी हर खुशी" ये इन्तजाम चाहिए !! आज हर किसी को आराम चाहिए........                  

तब सोई थी जनता, स्वीकार गुलामी थी.......

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सोई थी जनता स्वीकार गुलामी थी रो-रो कर सहती प्रताड़ना को नियति मानती थी जैसे कीलों के आसन पर , कोई कुत्ता पल पल रोता जब चुभती कीलें उठ जाता फिर थककर सोता फिर बैठ वहीं, दुखकर बस थोड़ा उठ जाता पर कभी ना कोशिश करता आसन से बाहर आने की , अपने भारत की भी कुछ,ऐसे ही कहानी थी तब सोई थी जनता, स्वीकार गुलामी थी गर रोष में आकर कोई  आवाज उठा देता दुश्मन से फिर अपना सर्वस्व लुटा देता इस डर से चुप सहना ही सबने ठानी थी तब सोई थी जनता स्वीकार गुलामी थी। बड़ी कोशिश से बापू ने सोयों को जगाया था आजादी का सपना  फिर सबको दिखाया था अंग्रेज चले जायेंं , फिर देश सम्भालेंगे घर के लफड़े जो हैं , हम मिलकर निबटा लेंगे मन में भावना ऐसी, बापू ने ठानी थी जब सोयी थी जनता, स्वीकार गुलामी थी । दुश्मन तो हार गया ! अपनो ने हरा डाला आजाद किया जिस देश को टुकड़े में बदल डाला विरोधी तत्वों की मिली भगत पुरानी थी तब सोयी थी जनता स्वीकार गुलामी थी भला किया जिनका अपमान मिला उनसे सीधे सच्चे बापू धोखे मिले अपनो से अब भी ना जाने क्या जनता ने ठानी थी तब

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