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बदलाव - 'अपनों के खातिर'

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  आज जब आकाश ने धरा का हाथ अपने हाथ में लेकर बड़े प्यार से कहा, "इधर आओ धरा ! हमेशा जल्दी में रहती हो, जरा पास में बैठो तो" ! तो अपने कानों पर विश्वास नहीं कर पायी वह, विस्मित नेत्रों से आकाश को देखते हुए बोली, "क्या ?.. वो...मैं...मैंने ठीक से सुना नहीं " ! "सुना नहीं या सुनकर भी दोबारा सुनना चाहती हो ! मुस्कुराते हुए उसे प्यार से अपने पास खींचकर आकाश बोला तो आश्चर्य से उसकी आँखें फैल गयी !  आकाश को इतने रोमांटिक मूड में वह सालों बाद देख रही थी । उसने खुद को हल्की चूटी काटी कि ये मैं हमेशा की तरह कोई सपना तो नहीं देख रही, उम्ह!...दर्द से कराह उठी वो ! फिर संयत होकर इधर उधर देखकर बोली , "जी ! आप ठीक तो हैं ? कहिए क्या बात है ? उसके ऐसे व्यवहार से आकाश भी झेंप सा गया । फिर नरम लहजे में बोला, "क्या बात है धरा ! आजकल तुम कुछ बदल सी गयी हो ? घरवाले भी कह रहे हैं और मुझे भी लग रहा है कि तुम पहले सी नहीं रही अब ! क्यों धरा ! क्या जरूरत है इस बदलाव की ? एक तुम ही तो हो जिसके कारण इस घर में सुख शांति रहती आयी है ।  मैं दिल से मानता हूँ धरा ! कि तुम्हारी जगह

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