वितृष्णा - "ये कैसा प्रेम था" ?
आज खाना बनाते हुए बार-बार आँखें छलछला रही थी नेहा की। महीने भर से दुखी मन को बामुश्किल ढाँढ़स बँधाती नेहा का दुख जैसे आज फिर से हरा हो गया था जब उसे रमेश (पति) ने बताया कि राघव जी आ रहे हैं तो वही पुरानी यादें सिया के साथ बिताये वो पल और फिर वह भयावह हादसा सब दिमाग में ऐसे घूमने लगे,जैसे अभी-अभी की बात हो । दुख भी लाजमी था, सिया सिर्फ सखी ही नहीं बहन सी थी उसके लिए । पाँच साल पहले उसके पति का तबादला जब दिल्ली हुआ और नेहा बच्चों सहित यहाँ आई तो कितना अकेलापन महसूस कर रही थी । रमेश तो घर में सामान शिप्ट कर अपने नये ऑफिस और ड्यूटी में व्यस्त हो गये। नेहा अकेले क्या-क्या करे, बच्चों को सम्भाले, कि लाया हुआ सामान सैट करे या फिर मार्केट से राशन-पानी लाकर खाने-पीने की व्यवस्था करे । अपने फ्लैट में पहुँचकर वह सोच -सोचकर परेशान थी कि दिल्ली जैसे शहर में पानी भी खरीदकर लाना पड़ेगा और अभी तो ये भी नहीं मालूम कि यहाँ से मार्केट है कितनी दूर ? तभी डोरबेल की आवाज सुन ये सोचकर दरवाजा खोला कि शायद रमेश आ गये हों छुट्टी लेकर। देखा तो सामने शरबत एवं चाय नाश्ता लेकर कोई अनजान औरत खड़ी है । झुँझलाये