गृहस्थ प्रेम
तुम साथ होते हो तो न जाने कितनी कपोल-कल्पनाएं उमड़ती-घुमड़ती हैं अंतस में... और मैं तड़पती हूँ एकान्त के लिए कि झाँँक सकूँ एक नजर अपनी कल्पनाओं के खूबसूरत संसार में। तुम्हारी नजरों से बचते-बचाते छुप-छुपके झाँक ही लेती हूँ और देखने लगती हूँ कोई खूबसूरत सपना पर तभी तुम टोक देते हो कि "कहाँ खो गई" !!! फिर क्या.....तुमसे छुपाये नहीं छुपा पाती अपनी खूबसूरत कल्पनाओं के अधूरे से सपने को। और फिर सुनते ही तुम निकल पड़ते हो बिना कुछ कहे , जैसे रूठे से मैं असमंजस में सोचती रह जाती हूँ कि मैंने किया क्या? बस सपना ही तो देखा था, अधूरा सा। तुम्हारे जाने के बाद समय है एकांत भी ! पर न जाने क्यों कोई सपना नजर नहीं आता नहीं उमड़ती अंतस में वैसी कल्पनाएं सब सूना सा हो जाता है तब वर्तमान में हकीकत के साथ जीती हूँ मैं ठीक तुम्हारी तरह हमारे हकीकत के घर-संसार की पहरेदार बनकर तुम्हारे इंतजार में तुम्हारी यादों के साथ ! और फिर एक दिन खत्म होता है ये यादों का सिलसिला और पल-पल का इंतजार तुम्हारे आने के साथ ! हाँ ! आते हो तुम ढ़ेर