आओ बच्चों ! अबकी बारी होली अलग मनाते हैं

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  आओ बच्चों ! अबकी बारी  होली अलग मनाते हैं  जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । ऊँच नीच का भेद भुला हम टोली संग उन्हें भी लें मित्र बनाकर उनसे खेलें रंग गुलाल उन्हें भी दें  छुप-छुप कातर झाँक रहे जो साथ उन्हें भी मिलाते हैं जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । पिचकारी की बौछारों संग सब ओर उमंगें छायी हैं खुशियों के रंगों से रंगी यें प्रेम तरंगे भायी हैं। ढ़ोल मंजीरे की तानों संग  सबको साथ नचाते हैं जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । आज रंगों में रंगकर बच्चों हो जायें सब एक समान भेदभाव को सहज मिटाता रंगो का यह मंगलगान मन की कड़वाहट को भूलें मिलकर खुशी मनाते हैं जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । गुझिया मठरी चिप्स पकौड़े पीयें साथ मे ठंडाई होली पर्व सिखाता हमको सदा जीतती अच्छाई राग-द्वेष, मद-मत्सर छोड़े नेकी अब अपनाते हैं  जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । पढ़िए  एक और रचना इसी ब्लॉग पर ●  बच्चों के मन से

हम फल नहीं खायेंगे

A boy eating fruit

आज बाबा जब अपने लाये थोड़े से फलों को बार - बार देखकर बड़े जतन से टोकरी में रख रहे थे तब रीना ने अपने छोटे भाई रवि को बुलाकर धीमी आवाज में समझाया कि बाबा जब माँ को फल काटकर देंगे और माँ हमेशा की तरह हमें  खिलायेगी तो हम फल नहीं खायेंगे !

सुनकर रवि बोला, "क्यों नहीं खायेंगे ? दीदी ! ऐसे तो माँ परेशान हो जायेगी न ! अगर परेशान होकर और बीमार हो गयी तो ? नहीं मुझे माँ को परेशान नहीं करना ! मैं तो चुपचाप खा लूँगा " ।

कहकर वो जाने लगा तो रीना ने उसकी कमीज पकड़कर उसे पास खींचा और फिर वैसी ही दबी आवाज में बोली, "अरे बुद्धू ! देखा नहीं , फल कित्ते कम हैं ! माँ बीमार है न, खाना भी नहीं खाती है, तो थोड़े फल ही खा लेगी न । समझा" !

 तो वह मासूमियत से बोला, "क्या समझा ? इत्ते सारे तो हैं न  !  हम सब मिलकर खा लेंगे । फिर बाबा और ले आयेंगे " ।

श्श्श...धीरे बोल ! सुन ! आज मैंने माँ - बाबा की बातें सुनी । वे दोनों पैसों की चिंता कर रहे थे । माँ की बीमारी को ठीक करने के लिए अभी बहुत सारे पैसे खर्च करने पड़ेंगे । तो बाबा अब ज्यादा फल नहीं ला पायेंगे ना ! इसीलिए हम फल नहीं खायेंगे ! समझ आया ! फुसफुसाकर धीमी आवाज में रीना ने उसे समझाया।

"हम्म ! ठीक है",  उदास होकर कहा उसने और चला गया वहाँ से ।

दिन में जब बाबा ने फल काटकर बीमार माँ को दिए तो माँ ने आवाज देकर दोनों बच्चों को बुलाया और सेब के एक टुकड़ा उठाकर रीना को देने लगी तो उसने मना कर दिया । माँ बोली , "क्यों नहीं ले रही ? क्या हुआ " ? 

" मन नहीं कर रहा सेब खाने का"  मुँह बनाते हुए रीना बोली ।

"अच्छा ! तो फिर ले ! अंगूर खा ले" !

"नहीं माँ ! कुछ भी खाने का मन नहीं है"।

अरे ! ऐसे कैसे ? क्या हुआ तुझे ? माँ ने बामुश्किल बैठते हुए उसके माथे को छुआ । फिर बाबा की तरफ देखकर पूछा "खाना तो खाया था इसने ? देखो जी ! बच्चों का और अपना ख्याल ठीक से रखो तुम" !  लड़खड़ाती मरियल सी आवाज में कहकर माँ खाँसने लगी तो बाबा ने झट से आकर माँ की पीठ थपथपाते हुए कहा , "अरे ! ठीक है वो ! क्यों चिंता करती है ! ऐसे ही मन नहीं होगा , बाद खा लेगी ।  तू खा ले न" !

"ऐसे कैसे मन नहीं है ! " चिंतित सी बड़बड़ाती माँ ने अब सेब का टुकड़ा रवि की तरफ बढ़ाया तो उसने झट से ले लिया ।

देखकर रीना उसका हाथ खींचकर बाहर लायी और सामने खड़ा कर डाँटते हुए बोली,  "क्या कहा था तुझे ?  झट से ले लिया ? पेटू कहीं का ! नहीं खाता फल तो कुछ हो नहीं जाता तुझे" !


"अरे  ! लिया ही तो है , खाया थोड़े ना  !  तूने देखा नहीं दीदी ! जब तूने मना किया तो माँ कित्ती परेशान हो गयी । है न ! इसीलिए तो मैंने ले लिया अब थोड़ा सा खा के फिर वापस रख लूँगा तो माँ को लगेगा कि मन भर गया तब छोड़ा है । तब माँ आराम से खा लेगी , जैसे हमेशा हमारा छोड़ा हुआ खाना खा लेती है न वैसे ही, और परेशान भी नहीं होगी । समझी !

पीछे खड़े बाबा ने सब सुना तो उनकी आँखें नम हो गयी। बचपन में ही बड़े से हुए अपना मन मारते बच्चों को देख बेबस और लाचार जो थे ।



पढिए रिश्तों की मिठास और अपनेपन को दर्शाती मेरी अन्य रचनाएं

● ये माँ भी न

,●गलतफहमी



टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (28-05-2023) को   "कविता का आधार" (चर्चा अंक-4666)  पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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  2. बालमन का सुंदर चित्रण, भावपूर्ण कहानी💐💐

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  3. सुंदर भावपूर्ण कहानी

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  4. कभी कभी बच्चे भी कितनी होशियारी वाला काम कर जाते। भावपूर्ण रचना।

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  5. भावपूर्ण प्रस्तुति

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  6. बालमन का बड़ी सुंदरता से चित्रण किया है।

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  7. गोपेश मोहन जैसवाल31 मई 2023 को 1:03 pm बजे

    सुन्दर कहानी !
    माँ-बाप तो बच्चों के लिए तो अपना मन मारते ही हैं, सब्र करते ही हैं, कुर्बानियां करते ही हैं पर जब बच्चे भी अपने माँ-बाप के लिए छोटी-छोटी ही सही, कुर्बानियां करते हैं तो ज़िंदगी में पारिवारिक रिश्तों की मिठास घुल जाती है.

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  8. आपकी लिखी रचना शुकवार 02 जून 2023 को साझा की गई है ,

    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    संगीता स्वरूप

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  9. खाया कहां लिया भर है
    सुंदर कहानी
    सादर

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  10. मन को छूती भावपूर्ण भावाभिव्यक्ति सुधा जी । बहुत सुन्दर लघुकथा ।

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  11. बच्चे जब घर की माली हालात को समझ लेते तो वे फिर बच्चे नहीं समझदार बन जाते हैं..
    बहुत अच्छी प्रस्तुति

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  12. बहुत ही सरलता से कविता के माध्यम से बहुत बड़ा ज्ञान दिया गया है .

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