चित्र, साभार pixabay से यूँ ही ऊबड़-खाबड़ राह में पैरों तले कुचली मलिन सी गुलदाउदी को देखा ... इक्की-दुक्की पत्तियाँ और कमजोर सी जड़ों के सहारे जिन्दगी से जद्दोजहद करती जीने की ललक लिए... जैसे कहती, "जडे़ं तो हैं न काफी है मेरे लिए"... तभी किसी खिंचाव से टूटकर उसकी एक मलिन सी टहनी जा गिरी उससे कुछ दूरी पर अपने टूटे सिरे को मिट्टी में घुसाती पनाह की आस लिए जैसे कहती, "माटी तो है न... काफी है मेरे लिए"। उन्हें देख मन बोला, आखिर क्यों और किसलिए करते हो ये जद्दोजहद ? बचा क्या है जिसके लिए सहते हो ये सब? अरे! तुमपे ऊपर वाले की कृपा तो क्या ध्यान भी न होगा । नहीं पनप पाओगे तुम कभी ! छोड़ दो ये आशा... !! पर नहीं वह तो पैर की हर कुचलन से उठकर जैसे बोल रही थी , "आशान्वित रहूँगी,अंतिम साँस तक" व्यंग उपेक्षा और तिरोभाव की हंसी हँस आगे बढ़ छोड़ दिया उसे मन ने फिर कभी न मिलने न देखने के लिए। बहुत दिनों बाद पुनः जाना हुआ उस राह तो देखा !! गुलदाउदी उसी हाल में पर अपनी टहनियां बढ़ा रही दूर बिखरी वो टहनी भी वहीं जड़...