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आई है बरसात (रोला छंद)

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अनुभूति पत्रिका में प्रकाशित रोला छंद आया सावन मास,  झमाझम बरखा आई। रिमझिम पड़े फुहार, चली शीतल पुरवाई। भीनी सौंधी गंध, सनी माटी से आती। गिरती तुहिन फुहार, सभी के मन को भाती ।। गरजे नभ में मेघ, चमाचम बिजली चमके । झर- झर झरती बूँद, पात मुक्तामणि दमके । आई है बरसात,  घिरे हैं बादल काले । बरस रहे दिन रात, भरें हैं सब नद नाले ।। रिमझिम पड़े फुहार, हवा चलती मतवाली । खिलने लगते फूल, महकती डाली डाली । आई है बरसात, घुमड़कर बादल आते । गिरि कानन में घूम, घूमकर जल बरसाते ।। बारिश की बौछार , सुहानी सबको लगती । रिमझिम पड़े फुहार, उमस से राहत मिलती । बहती मंद बयार , हुई खुश धरती रानी । सजी धजी है आज, पहनकर चूनर धानी ।। हार्दिक अभिनंदन आपका🙏 पढ़िए बरसात पर एक और रचना निम्न लिंक पर ●  रिमझिम रिमझिम बरखा आई

वृद्ध होती माँ

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सलवटें चेहरे पे बढती ,मन मेरा सिकुड़ा रही है वृद्ध होती माँ अब मन से बचपने में जा रही हैं। देर रातों जागकर जो घर-बार सब सँवारती थी, *बीणा*आते जाग जाती , नींद को दुत्कारती थी । शिथिल तन बिसरा सा मन है,नींद उनको भा रही है, वृद्ध होती माँ अब मन से बचपने में जा रही हैंं । हौसला रखकर जिन्होंने हर मुसीबत पार कर ली , अपने ही दम पर हमेशा, हम सब की नैया पार कर दी । अब तो छोटी मुश्किलों से वे बहुत घबरा रही हैं, वृद्ध होती माँ अब मन से बचपने में जा रही हैं । सुनहरे भविष्य के सपने सदा हमको दिखाती , टूटे-रूठे, हारे जब हम, प्यार से उत्साह जगाती । अतीती यादों में खोकर,आज कुछ भरमा रही हैं , वृद्ध होती माँ अब मन से बचपने में जा रही हैंं ।                                                                 चित्र : साभार गूगल से.. (*बीणा* -- भोर का तारा) माँ पर मेरी एक और कविता माँ ! तुम सचमुच देवी हो     ...

जानी ऐसी कला उस कलाकार की....

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  कुछ उलझने ऐसे उलझा गयी असमंजस के भाव जगाकर बुरी तरह मन भटका गयी, जब सहा न गया, मन व्यथित हो उठा आस भी आखिरी सांस लेने लगी जिन्दगी जंग है हार ही हार है नाउम्मीदी ही मन में गहराने लगी पल दो पल भी युगों सा तब लगने लगा कैसे ये पल गुजारें ! दिल तड़पने लगा थक गये हारकर , याद प्रभु को किया हार या जीत सब श्रेय उनको दिया मन के अन्दर से "मै" ज्यों ही जाने लगा एक दिया जैसे तम को हराने लगा बन्द आँखों से बहती जो अश्रुधार थी सूखती सी वो महसूस होने लगी नम से चेहरे पे कुछ गुनगुना सा लगा कुछ खुली आँख उजला सा दिखने लगा उम्मीदों की वो पहली किरण खुशनुमा नाउम्मीदी के बादल छटाने लगी आस में साँस लौटी और विश्वास भी जीने की आस तब मन में आने लगी जब ये जानी कला उस कलाकार की इक नयी सोच मन में समाने लगी भावना गीत बन गुनगुनाने लगी.... गहरा सा तिमिर जब दिखे जिन्दगी में तब ये माने कि अब भोर भी पास है दुख के साये बरसते है सुख बन यहाँ जब ये जाने कि रौशन हुई आस है रात कितनी भी घनी बीत ही जायेगी नयी उजली सुबह सारे सुख लायेगी जब ये उम्मीद मन में जगाने लगी हुई आसान जीवन की हर ...

वह प्रेम निभाया करता था....

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एक कली जब खिलने को थी, तब से ही निहारा करता था। दूर कहीं क्षितिज में खड़ा वह प्रेम निभाया करता था । दीवाना सा वह भ्रमर, पुष्प पे जान लुटाया करता था । कली खिली फिर फूल बनी, खुशबू महकी फ़िज़ा में मिली। फ़िज़ा में महकी खुशबू से ही कुछ खुशियाँ चुराया करता था। वह दूर कहीं क्षितिज में खड़ा बस प्रेम निभाया करता था । फूल की सुन्दरता को देख सारे चमन में बहार आयी। आते जाते हर मन को , महक थी इसकी अति भायी। जाने कितनी बुरी नजर से इसको बचाया करता था । दूर कहीं क्षितिज में खड़ा,  वह प्रहरी बन जाया करता था । फूल ने समझा प्रेम भ्रमर का, चाहा कि अब वो करीब आये। हाथ मेरा वो थाम ले आकर, प्रीत अमर वो कर जाये। डरता था छूकर बिखर न जाये, बस  दिल में बसाया करता था । दीवाना सा वह भ्रमर पुष्प पे जान लुटाया करता था । एक वनमाली हक से आकर, फूल उठा कर चला गया । उसके बहारों भरे चमन में, काँटे बिछाकर चला गया । तब विरही मन यादों के सहारे, जीवन बिताया करता था । दूर वहीं क्षितिज में खड़ा, वह आँसू बहाया करता था । दीवाना था वह भ्रमर पुष्प पे, जान लुटाया कर...

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