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ज्ञान के भण्डार गुरुवर

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 ख्याति लब्ध पत्रिका 'अनुभूति' के 'अपनी पाठशाला' विशेषांक में मेरी रचना 'ज्ञान के भण्डार गुरुवर ' प्रकाशित करने हेतु आ.पूर्णिमा वर्मन दीदी का हार्दिक आभार । ज्ञान के भंडार गुरुवर,  पथ प्रदर्शक है हमारे । डगमगाती नाव जीवन,  खे रहे गुरु के सहारे । गुरु की पारस दृष्टि से ही ,  मन ये कुंदन सा निखरता । कोरा कागज सा ये जीवन,  गुरु की गुरुता से महकता । देवसम गुरुदेव को हम,  दण्डवत कर, पग-पखारें  । ज्ञान के भंडार गुरुवर,  पथ प्रदर्शक है हमारे । गुरु कृपा से ही तो हमने , नव ग्रहों का सार जाना । भू के अंतस को भी समझा,  व्योम का विस्तार जाना । अनगिनत महिमा गुरु की,  पा कृपा, जीवन सँवारें । ज्ञान के भंडार गुरुवर,  पथ प्रदर्शक है हमारे । तन में मन और मन से तन,  के गूढ़ को बस गुरु ही जाने । बुद्धि के बल मन को साधें,  चित्त चेतन के सयाने । अथक श्रम से रोपते , अध्यात्म शिष्योद्यान सारे। ज्ञान के भंडार गुरुवर,  पथ प्रदर्शक है हमारे । पढ़िए पत्रिका 'अनुभूति' में प्रकाशित मेरी एक और रचना ●  बने पकौड़े गरम-गरम

जीवन की राहों में

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बचपन से परीक्षाओं में उत्तीर्ण और कक्षा में अव्वल रहने वाले ज्यादातर लोगों को अपनी बुद्धिमानी पर कोई शक नहीं रहता । उन्हें विश्वास हो जाता है कि जीवन की अन्य परीक्षाएं भी वे अपनी बुद्धि के बल पास कर ही लेंगे ।  अक्सर उन्हें नहीं पता होता कि जीवन की ये परीक्षाएं कुछ अलग ही होंगी जिसमें प्रतिस्पर्धी अपने ही होंगे । जब पता चलता भी है तो वे सोचते हैं कि अपनों से ही प्रतिस्पर्धा में भला क्या डर ! हार भी अपनी तो जीत भी अपनी । वे प्रतिस्पर्धा में इसी भाव के साथ सम्मिलित होते है सबसे अपनापन और स्नेह के भाव लिए ।  और अपने प्रतिस्पर्धियों से दो कदम आगे बढ़ते ही अकेले हो जाते हैं । क्योंकि अपनों के साथ होने वाली ऐसी प्रतिस्पर्धाएं अक्सर आगे बढ़ने की होती ही नहीं, ये प्रतिस्पर्धाएं तो किसी को आगे ना बढ़ने देने की होती हैं ।  हाँ ! ये प्रतिस्पर्धाएं ऊपर उठने की भी नहीं होती, बल्कि ऊपर उठने वाले को र्खीचकर नीचे गिराने की होती हैं । जो ना पीछे धकेले जाते हैं और ना ही नीचे गिराए जाते हैं ,  वे अकेले हो जाते हैं जीवन की राहों में । और फिर अक्सर भुला दिये जाते हैं , अपनों द्वारा ।  या फिर त्याग दिए जाते है

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