सोमवार, 27 अप्रैल 2020

नवगीत: यादें गाँव की

Beautiful memories of village


दशकों पहले शहर आ गये
नहीं हुआ फिर गाँव में जाना

ऊबड़-खाबड़ सी वो राहें,
शान्ति अनंत थी घर-आँगन में।
अपनापन था सकल गाँव में,
भय नहीं था तब कानन में।
यहाँ भीड़ भरी महफिल में,
मुश्किल है निर्भय रह पाना।
दशकों पहले शहर आ गये,
नहीं हुआ फिर गाँव में जाना।

मन अशांत यूँ कभी ढूँढ़ता,
वही शान्त पर्वत की चोटी।
तन्हाई भी पास न आती,
सुनती ज्यूँ प्रतिध्वनि वो मोटी।
यूँ कश्ती भी भूल गई है,
कागज वाली आज ठिकाना।
दशकों पहले शहर आ गये,
नहीं हुआ फिर गाँव में जाना।


रविवार, 26 अप्रैल 2020

'उलझन' किशोरावस्था की



confusions of teenagers
                                                                     


सुनो माँ ! अब तो बात मेरी
और आर करो या पार !
छोटा हूँ तो बचपन सा लाड दो
हूँ बड़ा तो दो अधिकार !

टीवी मोबाइल हो या कम्प्यूटर
मेरे लिए सब लॉक ?
थोड़ी सी गलती कर दूँ तो
सब करते हो ब्लॉक ?

कभी  कहते हो बच्चे नहीं तुम
छोड़ भी दो जिद्द करना !
समझ बूझ कुछ सीखो बड़ों से
बस करो यूं बहस करना !

कभी मुकरते इन बातों से
बड़ा न मुझे समझते
"बच्चे हो बच्चे सा रहो" कह
सख्त हिदायत देते

उलझन में हूँ  समझ न आता !
ऐसे मुझको कुछ नहीं भाता !
बड़ा हो गया या हूँ बच्चा !
क्या मैं निपट अकल का कच्चा ?

पर माँ ! तुम तो सब हो जानती
नटखट लल्ला मुझे मानती ।
फिर अब ऐसे मत रूठो ना
मेरी गलती छुपा भी लो माँ!

माँ मैं आपका  प्यारा बच्चा
जिद्दी हूँ पर मन का सच्चा !


           चित्र साभार गूगल से..  














गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

लघुकथा: 'बेबसी'

   
helplessness of migrant workers
चित्र; साभार गूगल से......
       
एक जमींदार के खेत में छोटी सी झुग्गी में एक गरीब किसान अपनी पत्नी व बच्चे के साथ रह रहा था, वह खेत में फसल उगाता और किनारों पर सब्जियां उगाकर ठेले में रख आसपास के अपार्टमेंट में बेच आता। फसल की कटाई मंडाई के बाद जमींदार भी उसे कुछ अनाज दिया करता था।
यह अनाज तो कुछ समय में ही खत्म हो जाता,पर सब्जियां बेचकर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो ही जाता था।
तभी कोरोना जैसी वैश्विक महामारी फैलने से शहर में कर्फ्यू लग गया।अब सब्जी बेचना भी दूभर हो गया। तीन चार दिन तो बचे खुचे राशन से निकल  गये।परन्तु रोग पर नियंत्रण न होने से पूरे देश को लम्बे समय तक लॉकडाउन कर दिया गया।

घर का राशन खत्म और हालात बदतर होते देख वह बहुत चिन्तित था । अब पति-पत्नी बचे-खुचे राशन से थोड़ा सा भोजन बना बच्चे को खिलाते स्वयं पानी पीकर रह जाते, दो दिन और निकले कि घर में फाका पड़ने लगा।
भूख से बेहाल परिवार की हालत किसान से देखी नहीं जा रही थी, उसने खेत की सब्जी से ठेली भरी और चल पड़ा अपार्टमेंट की तरफ....।

पुलिस की नजरों से बचते-बचाते वह गलियों में सब्जी बेचने पहुँचा तो लोगों ने उसे बालकनी से इशारा करके घर पर सब्जी देने को कहा।
'मरता क्या न करता'आखिर सबके द्वार पर सब्जी के दाम कुछ बढ़ाकर देने लगा, जल्द ही सारी सब्जियाँ अच्छे दामों में बिक गयी।
उसकी खुशी का ठिकाना न था, राशन व दूध लेकर घर लौटा तो पत्नी व बच्चे के चेहरे खिल उठे ।
पत्नी ने फटाफट खाना बनाया, सभी भोजन पर टूट पड़े।  आज रात उसे बड़े चैन की नींद आयी।

देर सुबह जगा तो झुग्गी का द्वार बन्द था, पत्नी जो हमेशा उससे पहले उठ जाती थी आज निश्चेत सी लेटी थी।उसे उठाने के लिए छुआ तो सन्न रह गया।पत्नी का बदन बुखार से तप रहा था पास में लेटा बच्चा भी जोर-जोर से खाँस रहा था ।उसने उठने की कोशिश की तो उसका सिर चकराने लगा। बुरी आशंका से उसका हृदय काँप उठा।
सामने पड़ी राशन की थैलियाँ उसे मुँह चिढ़ा रही थी.......।













बुधवार, 22 अप्रैल 2020

गीत - हम क्रांति के गीत गाते चलें


 beautiful buds of flower indicating joy

राष्ट्र की चेतना को जगाते चलें
हम क्रांति के गीत गाते चलें...

अंधेरे को टिकने न दें हम यहाँ
भय को भी छिपने न दें हम यहाँ
मन में किसी के निराशा न हो
आशा का सूरज उगाते चलें ।
हम क्रांति के गीत गाते चलें...

जागे धरा और गगन भी जगे
दिशा जाग जाए पवन भी जगे
नया तान छेड़े अब पंछी यहाँ
नव क्रांति के स्वर उठाते चलें
हम क्रांति के गीत गाते चलें...

अशिक्षित रहे न कोई देश में
पराश्रित रहे न कोई देश में
समृद्धि दिखे अब चहुँ दिश यहाँ
सशक्त राष्ट्र अपना बनाते चलें
हम क्रांति के गीत गाते चलें..........

प्रदूषण हटाएंं पर्यावरण संवारें
पुनः राष्ट्रभूमि में हरितिमा उगायें
सभ्य, सुशिक्षित बने देशवासी
गरीबी ,उदासी मिटाते चलें
हम क्रांति के गीत गाते चलें..........

जगे नारियाँ शक्ति का बोध हो
हो प्रगति, न कोई अवरोध हो
अब देश की अस्मिता जाए
शक्ति के गुण गुनगुनाते चलें
हम क्रांति के गीत गाते चलें...........

युवा देश के आज संकल्प लें
नव निर्माण फिर से सृजन का करें
मानवी वेदना को मिटाते हुए
धरा स्वर्ग सी अब बनाते चलें
हम क्रांति के गीत गाते चलें..........

रविवार, 19 अप्रैल 2020

अतीती स्मृतियाँँ

प्रदत्त चित्र पर मेरी भावाभिव्यक्ति

Experience and past memories


फूल गुलाब तुम्हें भेजा जो
जाने कहाँ मुरझाया होगा
तुमने मेरे प्रेम पुष्प को
यूँ ही कहीं ठुकराया होगा

टूटा होगा तृण-तृण में वो
जैसे मेरा दिल है टूटा....
रोया होगा उस पल वो भी
जान तिरा वो प्रेम था झूठा
दिल पे पड़ी गाँठों को ऐसे
कब किसने सुलझाया होगा
फूल गुलाब तुम्हें भेजा जो
जाने कहाँ मुरझाया होगा

आज उन्हीं राहों पे आकर
देखो मैं जी भर रोया हूँ
प्यार में था तब प्यार में अब भी
तेरी यादों में खोया हूँ।
अतीत की उन मीठी बातों में
कैसे मन बहलाया होगा....
फूल गुलाब तुम्हें भेजा जो
जाने कहाँ मुरझाया होगा

एक बारगी लौट के आओ
देखो मेरा हाल है क्या
जीवन संध्या भी ढ़लती है
दिन हफ्ते या साल है क्या.
रिसते घावों के दर्द में ऐसे
मलहम किसने लगाया होगा
फूल गुलाब तुम्हें भेजा जो
जाने कहाँ मुरझाया होगा।।


शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

नवगीत 'त्राहिमाम मानवता बोली'

corona : most harmful bacteria causing mutiple death

महाशक्ति लाचार खड़ी है,
त्राहिमाम मानवता बोली।

एक श्रमिक कुटी में बंधित,
भूखे बच्चों को बहलाता ।
एक श्रमिक शिविर में ठहरा,
घर जाने की आस लगाता।
गेहूँ पके खेत में झरते,
मौसम भी कर रहा ठिठौली।
महाशक्ति लाचार खड़ी है,
त्राहिमाम मानवता बोली ।

विज्ञान खड़ा मुँह ताक रहा,
क्या पुनः अंधभक्त बन जायें ?
कौन देव की शरण में जाकर,
इस राक्षस से मुक्ति पायें ?
एक कोप कोरोना बनकर,
खेल रहा है आँख मिचौली।
महाशक्ति लाचार खड़ी है,
त्राहिमाम मानवता बोली ।
       
                  चित्र ;साभार गूगल से.....


मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

नवसृजित हो रही सृष्टि....

nature recreating itself


अस्तित्व सृष्टि का आज
यहाँ जब डोल रहा
क्रोधित कोरोना बन
हमसे ये बोल रहा

हो सावधान मानव
मत अत्याचार करो
इस विभत्सता हेतु
ना मुझे लाचार करो
       
         तेरी बाँधी नफरत
         की गठरी खोल रहा
        अस्तित्व सृष्टि का आज
         यहाँ जब डोल रहा


मजबूर हुई मनु
मैं तेरी ही करनी से
तूने लगाव जो छोड़
दिया निज धरनी से
           
             तेरे विध्वंस को आज
              मेरा मन तोल रहा
            अस्तित्व सृष्टि का आज
            यहाँ जब डोल रहा

ठहरो तनिक तुम
अपने में ही रह जाओ
नवसृजित हो रही
सृष्टि बाधा मत लाओ

    बेदम सृष्टि में कोई
    सुधारस घोल रहा
    अस्तित्व सृष्टि का आज
    यहाँ जब डोल रहा
   

                चित्र साभार,पिन्टरेस्ट से

   
             

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

लोग अबला ही समझते

flower referring women

कहने को दो घर परन्तु
मन बना अभी बंजारा।
लोगअबला ही समझते,
चाहे दें सबको सहारा।

जन्म जिस घर में लिया,
उस घर से तो ब्याही गयी।
सम्मान गृहलक्ष्मी मिला,
और पति घर लायी गयी।
कल्पना के गाँव में भी,
कब बना है घर हमारा।
लोग अबला ही समझते,
चाहे दें सबको सहारा।

कल पिता आधीन थी वह
अब पति आश्रित बनी।
चाहे जैसा वैसा करती,
अपने मन की कब सुनी।
और मन फंसे भंवर में,
ढूँढ़ता कोई किनारा।
कल्पना के गाँव में भी,
कब बना है घर  हमारा ।
लोग-----------

कोमलांगी हैं मगर वो,
वीरांगना तक है सफर।
कोई कब समझा ये मन,
सिर्फ तन पे जाती नजर।
सीता माता या गार्गी,
ध्यान में जीवन  गुजारा।
कल्पना के गाँव में भी,
कब बना है घर हमारा।
लोग अबला ही समझते,
चाहे दें सबको सहारा।।





शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

आओ देशभक्ति निभायें...

                     
Patriotism


कभी भूख मिटाने अपनों की
हम आये थे शहर
पर आज कुदरत ने ढाया
है ये कैसा कहर
अब लगता है भूखे ही मरे होते
अपने घर-गाँवों में
यूँ मीलों पैदल न चलते
छाले पड़े पाँवों में......
आज अपने घर-गाँव वाले ही
हमें इनकार करते हैं
जहाँ हो जिस हाल में हो वहीं रहो
अपना प्रतिकार करते हैं
कहते हैं बाहर नहीं निकलना
यही सच्ची देशभक्ति है
तो हम भी हैं देशभक्त इतनी तो 
हम में भी शक्ति है
अब जहाँ है वही रहकर हम 
देशभक्ति निभायेंगे
हमें भी है स्वदेश से अथाह प्रेम
इसलिए इस कोरोना को मिटायेंगे
हम अपनों के खातिर एक दूसरे से
दूरियाँ बढ़ायेंगे...
इस महामारी से हरसम्भव
स्वदेश को बचायेंगे....
             
हमें क्या गम जब अपने पीएम 
साथ खड़े हैं हमारे
देश की बड़ी हस्तियाँँ भी , 
दे रही हैं हमें सहारे
अपने डॉक्टर्स स्वयं को भूल
फिक्र करते हैं हमारी
फिर हम और हमारी हरकतें क्यों बने
देश की लाचारी ?
हाँ कुछ कमियाँ हैं सिस्टम की
पर हम उन्हें क्यों उछालें?
घर की बातें हैं सब मिल-बैठ 
फिर कभी सुलझा लें
आज परीक्षा की घड़ी में हम 
अपना देशपरिवार तो बचा लें !
हिन्दू मुस्लिम सिक्ख इसाई
हैं हम सदियों से भाई-भाई,
जातिवाद का बचकाना छोड़ 
आओ कुछ देशभक्ति निभालें

आओ आज सब मिलकर देशभक्ति निभालें।
इस महामारी से अपने देश को बचा लें

हो सके तो समभाव रहें

जीवन की धारा के बीचों-बीच बहते चले गये ।  कभी किनारे की चाहना ही न की ।  बतेरे किनारे भाये नजरों को , लुभाए भी मन को ,  पर रुके नहीं कहीं, ब...