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अप्रैल, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मन की उलझनें

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बेटे की नौकरी अच्छी कम्पनी में लगी तो शर्मा दम्पति खुशी से फूले नहीं समा रहे थे,परन्तु साथ ही उसके घर से दूर चले जाने से दुःखी भी थे । उन्हें हर पल उसकी ही चिंता लगी रहती ।  बार-बार उसे फोन करते और तमाम नसीहतें देते । उसके जाने के बाद उन्हें लगता जैसे अब उनके पास कोई काम ही नहीं बचा, और उधर बेटा अपनी नयी दुनिया में मस्त था ।   पहली ही सुबह वह देर से सोकर उठा और मोबाइल चैक किया तो देखा कि घर से इतने सारे मिस्ड कॉल्स! "क्या पापा ! आप भी न ! सुबह-सुबह इत्ते फोन कौन करता है" ? कॉलबैक करके बोला , तो शर्मा जी बोले, "बेटा ! इत्ती देर तक कौन सोता है ? अब तुम्हारी मम्मी थोड़े ना है वहाँ पर तुम्हारे साथ, जो तुम्हें सब तैयार मिले ! बताओ कब क्या करोगे तुम ?  लेट हो जायेगी ऑफिस के लिए" ! "डोंट वरी पापा ! ऑफिस  बारह बजे बाद शुरू होना है । और रात बारह बजे से भी लेट तक जगा था मैं ! फिर जल्दी कैसे उठता"? "अच्छा ! तो फिर हमेशा ऐसे ही चलेगा" ? पापा की आवाज में चिंता थी । "हाँ पापा ! जानते हो न कम्पनी यूएस"... "हाँ हाँ समझ गया बेटा ! चल अब जल्दी से अपन...

नवगीत : यादें गाँव की

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दशकों पहले शहर आ गये नहीं हुआ फिर गाँव में जाना ऊबड़-खाबड़ सी वो राहें, शान्ति अनंत थी घर-आँगन में। अपनापन था सकल गाँव में, भय नहीं था तब कानन में। यहाँ भीड़ भरी महफिल में, मुश्किल है निर्भय रह पाना। दशकों पहले शहर आ गये, नहीं हुआ फिर गाँव में जाना। मन अशांत यूँ कभी ढूँढ़ता, वही शान्त पर्वत की चोटी। तन्हाई भी पास न आती, सुनती ज्यूँ प्रतिध्वनि वो मोटी। यूँ कश्ती भी भूल गई है, कागज वाली आज ठिकाना। दशकों पहले शहर आ गये, नहीं हुआ फिर गाँव में जाना।

'उलझन' किशोरावस्था की

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                                                                      सुनो माँ ! अब तो बात मेरी और आर करो या पार ! छोटा हूँ तो बचपन सा लाड दो हूँ बड़ा तो दो अधिकार ! टीवी मोबाइल हो या कम्प्यूटर मेरे लिए सब लॉक ? थोड़ी सी गलती कर दूँ तो सब करते हो ब्लॉक ? कभी  कहते हो बच्चे नहीं तुम छोड़ भी दो जिद्द करना ! समझ बूझ कुछ सीखो बड़ों से बस करो यूं बहस करना ! कभी मुकरते इन बातों से बड़ा न मुझे समझते "बच्चे हो बच्चे सा रहो" कह सख्त हिदायत देते उलझन में हूँ  समझ न आता ! ऐसे मुझको कुछ नहीं भाता ! बड़ा हो गया या हूँ बच्चा ! क्या मैं निपट अकल का कच्चा ? पर माँ ! तुम तो सब हो जानती नटखट लल्ला मुझे मानती । फिर अब ऐसे मत रूठो ना मेरी गलती छुपा भी लो माँ! माँ मैं आपका  प्यारा बच्चा जिद्दी हूँ पर मन का सच्चा !             चित्र साभार गूगल से..   

लघुकथा: 'बेबसी'

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    चित्र; साभार गूगल से......         एक जमींदार के खेत में छोटी सी झुग्गी में एक गरीब किसान अपनी पत्नी व बच्चे के साथ रह रहा था, वह खेत में फसल उगाता और किनारों पर सब्जियां उगाकर ठेले में रख आसपास के अपार्टमेंट में बेच आता। फसल की कटाई मंडाई के बाद जमींदार भी उसे कुछ अनाज दिया करता था। यह अनाज तो कुछ समय में ही खत्म हो जाता,पर सब्जियां बेचकर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो ही जाता था। तभी कोरोना जैसी वैश्विक महामारी फैलने से शहर में कर्फ्यू लग गया।अब सब्जी बेचना भी दूभर हो गया। तीन चार दिन तो बचे खुचे राशन से निकल  गये।परन्तु रोग पर नियंत्रण न होने से पूरे देश को लम्बे समय तक लॉकडाउन कर दिया गया। घर का राशन खत्म और हालात बदतर होते देख वह बहुत चिन्तित था । अब पति-पत्नी बचे-खुचे राशन से थोड़ा सा भोजन बना बच्चे को खिलाते स्वयं पानी पीकर रह जाते, दो दिन और निकले कि घर में फाका पड़ने लगा। भूख से बेहाल परिवार की हालत किसान से देखी नहीं जा रही थी, उसने खेत की सब्जी से ठेली भरी और चल पड़ा अपार्टमेंट की तरफ....। पुलिस की नजरों से बचते-बचाते वह गलियों म...

गीत - हम क्रांति के गीत गाते चलें

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  राष्ट्र की चेतना को जगाते चलें हम क्रांति के गीत गाते चलें... अंधेरे को टिकने न दें हम यहाँ भय को भी छिपने न दें हम यहाँ मन में किसी के निराशा न हो आशा का सूरज उगाते चलें । हम क्रांति के गीत गाते चलें... जागे धरा और गगन भी जगे दिशा जाग जाए पवन भी जगे नया तान छेड़े अब पंछी यहाँ नव क्रांति के स्वर उठाते चलें हम क्रांति के गीत गाते चलें... अशिक्षित रहे न कोई देश में पराश्रित रहे न कोई देश में समृद्धि दिखे अब चहुँ दिश यहाँ सशक्त राष्ट्र अपना बनाते चलें हम क्रांति के गीत गाते चलें.......... प्रदूषण हटाएंं पर्यावरण संवारें पुनः राष्ट्रभूमि में हरितिमा उगायें सभ्य, सुशिक्षित बने देशवासी गरीबी ,उदासी मिटाते चलें हम क्रांति के गीत गाते चलें.......... जगे नारियाँ शक्ति का बोध हो हो प्रगति, न कोई अवरोध हो अब देश की अस्मिता जाए शक्ति के गुण गुनगुनाते चलें हम क्रांति के गीत गाते चलें........... युवा देश के आज संकल्प लें नव निर्माण फिर से सृजन का करें मानवी वेदना को मिटाते हुए धरा स्वर्ग सी अब बनाते चलें हम क्रांति के गीत गाते चलें..........

अतीती स्मृतियाँँ

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प्रदत्त चित्र पर मेरी भावाभिव्यक्ति फूल गुलाब तुम्हें भेजा जो जाने कहाँ मुरझाया होगा तुमने मेरे प्रेम पुष्प को यूँ ही कहीं ठुकराया होगा टूटा होगा तृण-तृण में वो जैसे मेरा दिल है टूटा.... रोया होगा उस पल वो भी जान तिरा वो प्रेम था झूठा दिल पे पड़ी गाँठों को ऐसे कब किसने सुलझाया होगा फूल गुलाब तुम्हें भेजा जो जाने कहाँ मुरझाया होगा आज उन्हीं राहों पे आकर देखो मैं जी भर रोया हूँ प्यार में था तब प्यार में अब भी तेरी यादों में खोया हूँ। अतीत की उन मीठी बातों में कैसे मन बहलाया होगा.... फूल गुलाब तुम्हें भेजा जो जाने कहाँ मुरझाया होगा एक बारगी लौट के आओ देखो मेरा हाल है क्या जीवन संध्या भी ढ़लती है दिन हफ्ते या साल है क्या. रिसते घावों के दर्द में ऐसे मलहम किसने लगाया होगा फूल गुलाब तुम्हें भेजा जो जाने कहाँ मुरझाया होगा।।

नवगीत 'त्राहिमाम मानवता बोली'

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महाशक्ति लाचार खड़ी है, त्राहिमाम मानवता बोली। एक श्रमिक कुटी में बंधित, भूखे बच्चों को बहलाता । एक श्रमिक शिविर में ठहरा, घर जाने की आस लगाता। गेहूँ पके खेत में झरते, मौसम भी कर रहा ठिठौली। महाशक्ति लाचार खड़ी है, त्राहिमाम मानवता बोली । विज्ञान खड़ा मुँह ताक रहा, क्या पुनः अंधभक्त बन जायें ? कौन देव की शरण में जाकर, इस राक्षस से मुक्ति पायें ? एक कोप कोरोना बनकर, खेल रहा है आँख मिचौली। महाशक्ति लाचार खड़ी है, त्राहिमाम मानवता बोली ।                           चित्र ;साभार गूगल से.....

नवसृजित हो रही सृष्टि....

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अस्तित्व सृष्टि का आज यहाँ जब डोल रहा क्रोधित कोरोना बन हमसे ये बोल रहा हो सावधान मानव मत अत्याचार करो इस विभत्सता हेतु ना मुझे लाचार करो                  तेरी बाँधी नफरत          की गठरी खोल रहा         अस्तित्व सृष्टि का आज          यहाँ जब डोल रहा मजबूर हुई मनु मैं तेरी ही करनी से तूने लगाव जो छोड़ दिया निज धरनी से                          तेरे विध्वंस को आज               मेरा मन तोल रहा             अस्तित्व सृष्टि का आज             यहाँ जब डोल रहा ठहरो तनिक तुम अपने में ही रह जाओ नवसृजित हो रही सृष्टि बाधा मत लाओ     बेदम सृष्टि में कोई     सुधारस घोल रहा     अस्तित्व सृष्टि का आज     यहाँ जब डोल रहा         ...

लोग अबला ही समझते

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कहने को दो घर परन्तु मन बना अभी बंजारा। लोगअबला ही समझते, चाहे दें सबको सहारा। जन्म जिस घर में लिया, उस घर से तो ब्याही गयी। सम्मान गृहलक्ष्मी मिला, और पति घर लायी गयी। कल्पना के गाँव में भी, कब बना है घर हमारा। लोग अबला ही समझते, चाहे दें सबको सहारा। कल पिता आधीन थी वह अब पति आश्रित बनी। चाहे जैसा वैसा करती, अपने मन की कब सुनी। और मन फंसे भंवर में, ढूँढ़ता कोई किनारा। कल्पना के गाँव में भी, कब बना है घर  हमारा । लोग----------- कोमलांगी हैं मगर वो, वीरांगना तक है सफर। कोई कब समझा ये मन, सिर्फ तन पे जाती नजर। सीता माता या गार्गी, ध्यान में जीवन  गुजारा। कल्पना के गाँव में भी, कब बना है घर हमारा। लोग अबला ही समझते, चाहे दें सबको सहारा।।

आओ देशभक्ति निभायें...

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                      कभी भूख मिटाने अपनों की हम आये थे शहर पर आज कुदरत ने ढाया है ये कैसा कहर अब लगता है भूखे ही मरे होते अपने घर-गाँवों में यूँ मीलों पैदल न चलते छाले पड़े पाँवों में...... आज अपने घर-गाँव वाले ही हमें इनकार करते हैं जहाँ हो जिस हाल में हो वहीं रहो अपना प्रतिकार करते हैं कहते हैं बाहर नहीं निकलना यही सच्ची देशभक्ति है तो हम भी हैं देशभक्त इतनी तो  हम में भी शक्ति है अब जहाँ है वही रहकर हम  देशभक्ति निभायेंगे हमें भी है स्वदेश से अथाह प्रेम इसलिए इस कोरोना को मिटायेंगे हम अपनों के खातिर एक दूसरे से दूरियाँ बढ़ायेंगे... इस महामारी से हरसम्भव स्वदेश को बचायेंगे....               हमें क्या गम जब अपने पीएम  साथ खड़े हैं हमारे देश की बड़ी हस्तियाँँ भी ,  दे रही हैं हमें सहारे अपने डॉक्टर्स स्वयं को भूल फिक्र करते हैं हमारी फिर हम और हमारी हरकतें क्यों बने देश की लाचारी ? हाँ कुछ कमियाँ हैं सिस्टम की पर...

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