"जाने दे बेटा ! एक कुर्सी ही तो है ,वो या ये, क्या फर्क पड़ता है, बैठना ही तो है न । इसी से काम चला ले"।
"नहीं मम्मा ! इस टेबल के साथ की वही चेयर है । हाइट वगैरह से फिट है वो इसके साथ,और ये चेयर उसके टेबल से साथ की है फिर भी उसने"...
"जाने दे न बेटा ! रहने दे , शायद उसे पसन्द आ गई ! अब ले गई तो ले जाने दे" !
"ऐसे कैसे मम्मा ! कैसे जाने दूँ ? इस चेयर के साथ मैं कम्फर्टेबल नहीं हूँ" !
उसने कुछ चिढ़कर कहा तो माँ डाँटते हुए बोली, "ऐडजस्ट कर ले अब ऐसे ही ! "अच्छा थोड़े ना लगता है कि तू भी वैसे ही चुपचाप उठा लाये" !
"मैं क्यों चुपचाप उठाकर लाउँगी मम्मा" ?
"तो शिकायत करेगी ऑनर से ? चुप रह ले ! माँ ने फिर घुड़क दिया"।
"नहीं मम्मा ! कोई कम्प्लेन नहीं कर रही मैं ! आप चिंता मत करो ! मैं उसे बताकर इस टेबल के साथ की चेयर लाउँगी या फिर इस चेयर के साथ का टेबल" !
"पर बेटा जाने दे न ! उसने दे भी दिया तो मन में क्या सोचेगी ? ऐसे तो तुम्हारी दोस्ती में मनमुटाव"...
"मम्मा ! ना लाई तो मैं मन में क्या सोचुँगी ! मनमुटाव तो कहीं से भी शुरू हो सकता हैं न" !
माँ अब निःशब्द मुस्कुरा कर रह गई और 'मन की सोच और मनमुटाव' के इस वाकये में जीवन के कितने ही वाकये जोड़ सोचने लगी कि वाकई दूसरे के मन की सोचने से पहले अपने ही मन के मनमुटाव तो ठीक कर दें पहले ।
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