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मई, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मन की उलझनें

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बेटे की नौकरी अच्छी कम्पनी में लगी तो शर्मा दम्पति खुशी से फूले नहीं समा रहे थे,परन्तु साथ ही उसके घर से दूर चले जाने से दुःखी भी थे । उन्हें हर पल उसकी ही चिंता लगी रहती ।  बार-बार उसे फोन करते और तमाम नसीहतें देते । उसके जाने के बाद उन्हें लगता जैसे अब उनके पास कोई काम ही नहीं बचा, और उधर बेटा अपनी नयी दुनिया में मस्त था ।   पहली ही सुबह वह देर से सोकर उठा और मोबाइल चैक किया तो देखा कि घर से इतने सारे मिस्ड कॉल्स! "क्या पापा ! आप भी न ! सुबह-सुबह इत्ते फोन कौन करता है" ? कॉलबैक करके बोला , तो शर्मा जी बोले, "बेटा ! इत्ती देर तक कौन सोता है ? अब तुम्हारी मम्मी थोड़े ना है वहाँ पर तुम्हारे साथ, जो तुम्हें सब तैयार मिले ! बताओ कब क्या करोगे तुम ?  लेट हो जायेगी ऑफिस के लिए" ! "डोंट वरी पापा ! ऑफिस  बारह बजे बाद शुरू होना है । और रात बारह बजे से भी लेट तक जगा था मैं ! फिर जल्दी कैसे उठता"? "अच्छा ! तो फिर हमेशा ऐसे ही चलेगा" ? पापा की आवाज में चिंता थी । "हाँ पापा ! जानते हो न कम्पनी यूएस"... "हाँ हाँ समझ गया बेटा ! चल अब जल्दी से अपन...

हम फल नहीं खायेंगे

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आज बाबा जब अपने लाये थोड़े से फलों को बार - बार देखकर बड़े जतन से टोकरी में रख रहे थे तब रीना ने अपने छोटे भाई रवि को बुलाकर धीमी आवाज में समझाया कि बाबा जब माँ को फल काटकर देंगे और माँ हमेशा की तरह हमें  खिलायेगी तो हम फल नहीं खायेंगे ! सुनकर रवि बोला, "क्यों नहीं खायेंगे ? दीदी ! ऐसे तो माँ परेशान हो जायेगी न ! अगर परेशान होकर और बीमार हो गयी तो ? नहीं मुझे माँ को परेशान नहीं करना ! मैं तो चुपचाप खा लूँगा " । कहकर वो जाने लगा तो रीना ने उसकी कमीज पकड़कर उसे पास खींचा और फिर वैसी ही दबी आवाज में बोली, "अरे बुद्धू ! देखा नहीं , फल कित्ते कम हैं ! माँ बीमार है न, खाना भी नहीं खाती है, तो थोड़े फल ही खा लेगी न । समझा" !  तो वह मासूमियत से बोला, "क्या समझा ? इत्ते सारे तो हैं न  !  हम सब मिलकर खा लेंगे । फिर बाबा और ले आयेंगे " । श्श्श...धीरे बोल ! सुन ! आज मैंने माँ - बाबा की बातें सुनी । वे दोनों पैसों की चिंता कर रहे थे । माँ की बीमारी को ठीक करने के लिए अभी बहुत सारे पैसे खर्च करने पड़ेंगे । तो बाबा अब ज्यादा फल नहीं ला पायेंगे ना ! इसीलिए हम फल नहीं खायेंगे ...

उठे वे तो जबरन गिराने चले

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  उठे वे तो जबरन गिराने चले  कुछ अपने ही रिश्ते मिटाने चले  अपनों की नजर में गिराकर उन्हें गैरों में अपना बताने चले ।। ना राजा ना रानी, अधूरी कहानी दुखों से वे लाचार थे बेजुबानी करम के भरम में फँसे ऐसे खुद ही कल्पित ही किस्से सुनाने चले  उठे वे तो जबरन गिराने चले ।। दर-दर की ठोकर से मजबूत होकर चले राह अपनी सभी आस खोकर हर छाँव सर से उनकी गिराकर राहों में काँटे बिछाने चले उठे वे तो जबरन गिराने चले ।। काँटों में चल के तमस से निकल के रस्ते बनाये हर विघ्नों से लड़ के पहचान खुद से नयी जब बनी तो मिल बाँट खुशियाँ मनाने चले उठे वे तो जबरन गिराने चले ।। पढ़िए इन्हीं भावों पर आधारित एक और सृजन " दुखती रगों को दबाते बहुत हैं "

ये माँ भी न !...

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 ट्रेन में बैठते ही प्रदीप ने अपनी बंद मुट्ठी खोलकर देखी तो आँखों में नमी और होठों में मुस्कुराहट खिल उठी ।  साथ बैठे दोस्त राजीव ने उसे देखा तो आश्चर्यचकित होकर पूछा, "क्या हुआ ? तू हँस रहा है या रो रहा है " ?  अपनी बंद मुट्ठी को धीरे से खोलकर दो सौ का नोट दिखाते हुए प्रदीप बोला , "ये माँ भी न ! जानती है कि पिचहत्तर हजार तनख्वाह है मेरी । फिर भी ये देख ! ये दो सौ रुपये का नोट मेरी मुट्ठी में बंद करते हुए बोली , रास्ते में कुछ खा लेना" ।  कहते हुए उसका गला भर आया । 

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