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जनवरी, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मन की उलझनें

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बेटे की नौकरी अच्छी कम्पनी में लगी तो शर्मा दम्पति खुशी से फूले नहीं समा रहे थे,परन्तु साथ ही उसके घर से दूर चले जाने से दुःखी भी थे । उन्हें हर पल उसकी ही चिंता लगी रहती ।  बार-बार उसे फोन करते और तमाम नसीहतें देते । उसके जाने के बाद उन्हें लगता जैसे अब उनके पास कोई काम ही नहीं बचा, और उधर बेटा अपनी नयी दुनिया में मस्त था ।   पहली ही सुबह वह देर से सोकर उठा और मोबाइल चैक किया तो देखा कि घर से इतने सारे मिस्ड कॉल्स! "क्या पापा ! आप भी न ! सुबह-सुबह इत्ते फोन कौन करता है" ? कॉलबैक करके बोला , तो शर्मा जी बोले, "बेटा ! इत्ती देर तक कौन सोता है ? अब तुम्हारी मम्मी थोड़े ना है वहाँ पर तुम्हारे साथ, जो तुम्हें सब तैयार मिले ! बताओ कब क्या करोगे तुम ?  लेट हो जायेगी ऑफिस के लिए" ! "डोंट वरी पापा ! ऑफिस  बारह बजे बाद शुरू होना है । और रात बारह बजे से भी लेट तक जगा था मैं ! फिर जल्दी कैसे उठता"? "अच्छा ! तो फिर हमेशा ऐसे ही चलेगा" ? पापा की आवाज में चिंता थी । "हाँ पापा ! जानते हो न कम्पनी यूएस"... "हाँ हाँ समझ गया बेटा ! चल अब जल्दी से अपन...

सुरक्षा या सजा

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 हैलो ! मम्मा! कहाँ हो आप ? फोन क्यों नहीं उठा रहे थे सब ठीक है न ? निक्की ने चिंतित होकर पूछा तो उसकी माँ बोली ; "हाँ बेटा! सब ठीक है। भूल गयी क्या? मैंने बताया तो था कि मैंने ज्यूलरी वापस लॉकअप में रखने जाना है।  ओह! मैं तो भूल गयी मम्मा! और खूब परेशान हुई। पर मैंने आपके मोबाइल पर भी तो कॉल किया था, आपने उठाया क्यों नहीं ? अच्छा !  ओहो ! साइलेंट था शायद। चल छोड़। बता ! क्या बात है ? और ये आवाजें  ? शोरगुल सा...क्या हो रहा है वहाँ पर  ? कुछ नहीं मम्मा ! ये कुछ लड़कियों की वार्डन से बहस हो रही है । दबी आवाज में निक्की ने बताया। वार्डन से ? पर क्यों ? ये बच्चे भी न ! नहीं मम्मा! यहाँ के रूल्स ही अनोखे हैं, और वार्डन भी स्ट्रिक्ट!  वार्डन तो अपनी ड्यूटी कर रही है बेटा ! ऐसे अपने से बड़ों के मुँह लगना अच्छी बात तो नहीं। वैसे बहस किस बारे में कर रह रहे हैं ये ? मम्मा यहाँ शाम छः बजे के बाद कोई बाहर नहीं जा सकता । और ये रूल्स सिर्फ गर्ल्स हॉस्टल में हैं ब्वॉयज तो साढ़े नौ तक घूमते रहते हैं बाहर। इसी बात पर बहस चल रही है वार्डन से। अरे! ये रूल्स भी तुम्हारी ही सेफ्टी...

कहाँ गये तुम सूरज दादा ?

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  कहाँ गये तुम सूरज दादा ? क्यों ली अबकी छुट्टी ज्यादा ? ठिठुर रहे हैं हम सर्दी से, कितना पहनें और लबादा ? दाँत हमारे किटकिट बजते । रोज नहाने से हम डरते । खेलकूद सब छोड़-छाड़ हम, ओढ़ रजाई ठंड से लड़ते । क्यों देरी से आते हो तुम ? साँझ भी जल्दी जाते क्यों तुम ? अपनी धूप भी आप सेंकते, दिनभर यूँ सुस्ताते क्यों तुम ? धूप भी देखो कैसी पीली । मरियल सी कुछ ढ़ीली-ढ़ीली । उमस कहाँ गुम कर दी तुमने  जलते ज्यों माचिस की तीली । शेर बने फिरते गर्मी में । सिट्टी-पिट्टी गुम सर्दी में । घने कुहासे से डरते क्यों ? आ जाओ ऊनी वर्दी में ! निकल भी जाओ सूरज दादा । जिद्द न करो तुम इतना ज्यादा। साथ तुम्हारे खेलेंगे हम, लो करते हैं तुमसे वादा । कोहरे को अब दूर भगा दो ! गर्म-गर्म किरणें बिखरा दो ! राहत दो ठिठुरे जीवों को, आ जाओ सबको गरमा दो ! पढ़िए एक और बाल कविता  ●  चंदा मामा कभी उतरकर, धरती पर आ जाओ ना

"पत्थरदिल मर्द बेदर्द कहलाता" हूँ मैं...

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चित्र साभार shutterstock से दिल में सौ दर्द छिपे, करूँ किससे शिकवे गिले। मर्द हूँ रो ना सकूँ , जख्म चाहे हों मिले। घर से बेघर हूँ सदा फिर भी घर का ठहरा, नियति अपनी है यही, विदा ना अश्रु ढ़ले।। घर से निकला जो कमाने, दिल पत्थर का बनाया । माँ की गोदी में सिर रखा, फिर भी मैं रो नहीं पाया । उन समन्दर भरी आँखों से आँखें चार कर खिसका । बहे जब नाक आँसू , तो मफलर काम तब आया । झूठी मुस्कान झूठी शान ले के जी रहा हूँ । मैं फौलाद कहने का,  टूक दिल सी रहा हूँ । करनी कापुरुष की 'सजा ए शक' में हूँ मैं, वेवजह बेएतबारी का जहर पी रहा हूँ ।। घर , समाज हो या देश पहरेदार हूँ मैं । माँ, बहन, बेटी की सुरक्षा का जिम्मेदार हूँ मैं । अनहोनियाँ करते नरपिशाच मेरा रूप लिए, बेबस विवश हूँ उन हालात पर लाचार हूँ मैं ।। खामोशी ओढ़के जज्बात छुपाता हूँ मैं । बेटा,भाई, पति,पिता बन फर्ज निभाता हूँ मैं । भूलकर दर्द अपने जिम्मेदारियाँ निभाने, "पत्थरदिल मर्द बड़ा बेदर्द" कहलाता हूँ मैं ।।

पीनी है चाय तो धैर्य जरूरी है भाई !

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चित्र साभार,shutterstock से शिशिर के कुहासे में ठिठुरता दिन देख मन चाय पीने का कर गया अब मन कर गया तो तन का क्या ! वो तो ठहरा मन के हाथ की कठपुतली ! मसालेदार चाय का कप लेकर हाजिर।  मन को भी कहाँ सब्र था , सुड़कने को आतुर! आदेश पाते ही हाथ ने कप उठाया और होंठों तक ले ही गया कि जुबान कैंची सी कटकटाते हुए बोली  ;    "हे !  खबरदार !  खबरदार जो चाय का एक घूँट भी मुझ तक पहुँचाया ! चाय ! वह भी इतनी गरम ! ना बाबा ना ! अब ये अत्याचार सहन नहीं कर सकती। ठहर जा हाथ ! मैं इस तरह जल कर नहीं मर सकती ! हाथ बेचारा ठिठककर रह गया, फिर थोड़ी हिम्मत कर धीरे से बोला,  "ठंडी का मौसम है यार ! मन है थोड़ा डोला"।  जुबान फिर किटकिटाती हुई बोली, "सिर में डाल न, पता चल जायेगा, बड़ा आया तन मन का हमजोली ! समझ क्या रखा है तुमने मुझे ? जो चाहे ठूँसते जाते हो। अब ऐसा ना करने दूँगी किसी भी हाल में मैं तुझे! बताये देती हूँ , ये चाय-वाय नहीं पीनी मुझे। देख कितनी कोमल हूँ मैं ? क्या दिखता नहीं तुझे ? चाय पीने के लिए सबसे पहले धैर्य की जरूरत पड़ती है, और धैर्य/ सब्र तो तुम्हारे उस मुएँ मन म...

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