"पत्थरदिल मर्द बेदर्द कहलाता" हूँ मैं...
चित्र साभार shutterstock से |
दिल में सौ दर्द छिपे, करूँ किससे शिकवे गिले।
मर्द हूँ रो ना सकूँ , जख्म चाहे हों मिले।
घर से बेघर हूँ सदा फिर भी घर का ठहरा,
नियति अपनी है यही, विदा ना अश्रु ढ़ले।।
घर से निकला जो कमाने, दिल पत्थर का बनाया ।
माँ की गोदी में सिर रखा, फिर भी मैं रो नहीं पाया।
उन समन्दर भरी आँखों से आँखें चार कर खिसका ।
बही जब नाक अश्कों से ,तो मफलर काम तब आया।
झूठी मुस्कान झूठी शान ले के जी रहा हूँ।
मैं फौलाद कहने का, टूक दिल सी रहा हूँ।
करनी कापुरुष की 'सजा ए शक' में हूँ मैं,
वेवजह बेएतबारी का जहर पी रहा हूँ।।
घर समाज हो या देश पहरेदार हूँ मैं ।
माँ बहन बेटी की सुरक्षा का जिम्मेदार हूँ मैं।
अनहोनियाँ करते नरपिशाच मेरा रूप लिए,
बेबस विवश हूँ उन हालात पर लाचार हूँ मैं।।
खामोशी ओढ़के जज्बात छुपाता हूँ मैं।
बेटा,भाई, पति,पिता बन फर्ज निभाता हूँ मैं।
भूलकर दर्द अपने जिम्मेदारियाँ निभाने
"पत्थरदिल मर्द बड़ा बेदर्द" कहलाता हूँ मैं।।
टिप्पणियाँ
बेटा,भाई, पति,पिता बन फर्ज निभाता हूँ मैं।
बेहतरीन रचना सखी।
--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर आभार।
मैं फौलाद कहने का, टूक दिल सी रहा हूँ।
करनी कापुरुष की 'सजा ए शक' में हूँ मैं,
वेवजह बेएतबारी का जहर पी रहा हूँ।।
बहुत सुंदर।
माँ बहन बेटी की सुरक्षा का जिम्मेदार हूँ मैं।
अनहोनियाँ करते नरपिशाच मेरा रूप लिए,
बेबस विवश हूँ उन हालात पर लाचार हूँ मैं।।
काश कि सभी पुरुष महसूस कर पाते तो आज किसी एक की वजह से सभी को शक की नजरों का सामना नहीं करना पड़ता! एक की सजा सबको नहीं मिलती!
बहुत से लोग हैं जो यह महसूस करते हैं!पर कुछ ही लोगों के कारण पूरा पुरुष समाज शक के घेरे में रहता है और लड़कियां जहां तक हो सकता है उनसे बचकर ही रहना चाहती हैं!बहुत ही ज्यादा तकलीफ होती है किसी से सिर्फ इस वजह से दूरी बनाना कि वह पुरुष है, पुरुषों का कोई भरोसा नहीं!जबकि हमें पता होता है कि सभी लोग एक जैसे नहीं होते हैं लेकिन फिर भी अपनी सुरक्षा के खातिर मजबूरन ऐसा करना पड़ता है और सजग रहना पड़ता है! पुरुषों के दर्द को बयां करता हुआ बहुत ही मार्मिक वह हृदयस्पर्शी सृजन! एक एक शब्द दिल को छू रहे हैं!
मेरे विचारों के समर्थन हेतु पुनः दिल से शुक्रिया।
बेटा,भाई, पति,पिता बन फर्ज निभाता हूँ मैं।
भूलकर दर्द अपने जिम्मेदारियाँ निभाने
"पत्थरदिल मर्द बड़ा बेदर्द" कहलाता हूँ मैं।।
बहुत ही सार्थक संदर्भ उठाया आपने..पुरुष मन की गहन पीड़ा और मर्म को परिभाषित करती उत्कृष्ट रचना ।
सस्नेह आभार।
बेटा,भाई, पति,पिता बन फर्ज निभाता हूँ मैं।
पुरुष द्वारा जिम्मेदारियों को वहन करने के दायित्व का हृदयस्पर्शी
चित्रण । अति सुन्दर सृजन सुधा जी ॥
एक पूर्ण पुरुष मन की अंतर वेदना को अपने ऐसे उकेरा है जैसे शायद हर निष्ठावान पुरुष के मनोगत भाव आपकी लेखनी से साक्षात हो रहे हैं।
बहुत बहुत बहुत सुंदर ।
अभिनव अनुपम सृजन।
पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सादर आभार।
सच अहि कई बार ये सब कुछ होता है ... आयर किसी से कुछ बयाँ करना आसान नहीं होता ...
गहरी रचना ... आभार ऐसी रचना के लिए ....