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भ्रात की सजी कलाई (रोला छंद)

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सावन पावन मास , बहन है पीहर आई । राखी लाई साथ, भ्रात की सजी कलाई ।। टीका करती भाल, मधुर मिष्ठान खिलाती । देकर शुभ आशीष, बहन अतिशय हर्षाती ।। सावन का त्यौहार, बहन राखी ले आयी । अति पावन यह रीत, नेह से खूब निभाई ।। तिलक लगाकर माथ, मधुर मिष्ठान्न खिलाया । दिया प्रेम उपहार , भ्रात का मन हर्षाया ।। राखी का त्योहार, बहन है राह ताकती । थाल सजाकर आज, मुदित मन द्वार झाँकती ।। आया भाई द्वार, बहन अतिशय हर्षायी ।  बाँधी रेशम डोर, भ्रात की सजी कलाई ।। सादर अभिनंदन आपका 🙏 पढ़िए राखी पर मेरी एक और रचना निम्न लिंक पर जरा अलग सा अब की मैंने राखी पर्व मनाया  

ज्यों घुमड़ते मेघ नभ में, तृषित धरणी रो रही

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चित्र साभार pixabay.com से  मन विचारों का बवंडर लेखनी चुप सो रही ज्यों घुमड़ते मेघ नभ में  तृषित धरणी रो रही अति के मारे सबसे हारे शरण भी किसकी निहारें रक्त के प्यासों से कैसे बचके निकलेंगें बेचारे किसको किसकी है पड़ी इंसानियत जब खो रही हद हुई मतान्धता की शब्द लेते जान हैं कड़क रही हैं बिजलियाँ किसपे गिरे क्या भान है कौन थामें निरंकुशता धारना जब सो रही प्रसिद्धि की है लालसा  सर पे है जुनून हावी गीत गाता मंच गूँगा पंगु मैराथन का धावी लायकी बन के यूँ काहिल बोझा गरीबी ढ़ो रही ।। पढ़िए मन पर आधारित एक और रचना निम्न लिंक पर-- ●  मन कभी बैरी सख बनके क्यों सताता है

विचार मंथन

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  चित्र साभार pixabay.com ,से "कुछ नहीं है हम इंसान, मूली हैं ऊपर वाले के खेत की" । सुना तो सोचा क्या सच में हम मूली (पौधे) से हैं ऊपर वाले के  सृष्टि रूपी खेत की ? क्या सचमुच उसके लिए  हम वैसे ही होंगे जैसे हमारे लिए खेत या गमलों में उगे उगाये पौधे ? देखा छोटे से गमले में उगी अनगिनत पौध को ! हर पौधा बढ़ने की  कोशिश में  अपने हिस्से का सम्पूर्ण पाने की लालसा लिए  अपने आकार को संकुचित कर बस ताकता है अपने हिस्से का आसमान । खचाखच भरे गमले के उन  नन्हें पौधों की तकदीर होती माली के हाथ ! माली की मुट्ठी में आये  मिट्टी छोड़ते मुट्ठी भर पौधे  नहीं जानते अपना भविष्य  कि कहाँ लेंगे वे अपनी अगली साँस ? किसे दिया जायेगा नये खाद भरे  गमले का साम्राज्य ? या फिर फेंक दिया जायेगा कहीं कचड़े के ढ़ेर में ! नन्हीं जड़ें एवं कोपलें झुलस जायेंगी यूँ ही तेज धूप से, या दफन कर बनाई  जायेगी कम्पोस्ट ! या उसी जगह यूँ ही  अनदेखे से जीना होगा उन्हें । और मौसम की मर्जी से  पायेंगे धूप, छाँव, हवा और पानी । या एक दूसरे की ओट में कुछ सड़ गल कर सडा़ते रहे...

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