चित्र साभार pixabay.com ,से "कुछ नहीं है हम इंसान, मूली हैं ऊपर वाले के खेत की" । सुना तो सोचा क्या सच में हम मूली (पौधे) से हैं ऊपर वाले के सृष्टि रूपी खेत की ? क्या सचमुच उसके लिए हम वैसे ही होंगे जैसे हमारे लिए खेत या गमलों में उगे उगाये पौधे ? देखा छोटे से गमले में उगी अनगिनत पौध को ! हर पौधा बढ़ने की कोशिश में अपने हिस्से का सम्पूर्ण पाने की लालसा लिए अपने आकार को संकुचित कर बस ताकता है अपने हिस्से का आसमान । खचाखच भरे गमले के उन नन्हें पौधों की तकदीर होती माली के हाथ ! माली की मुट्ठी में आये मिट्टी छोड़ते मुट्ठी भर पौधे नहीं जानते अपना भविष्य कि कहाँ लेंगे वे अपनी अगली साँस ? किसे दिया जायेगा नये खाद भरे गमले का साम्राज्य ? या फिर फेंक दिया जायेगा कहीं कचड़े के ढ़ेर में ! नन्हीं जड़ें एवं कोपलें झुलस जायेंगी यूँ ही तेज धूप से, या दफन कर बनाई जायेगी कम्पोस्ट ! या उसी जगह यूँ ही अनदेखे से जीना होगा उन्हें । और मौसम की मर्जी से पायेंगे धूप, छाँव, हवा और पानी । या एक दूसरे की ओट में कुछ सड़ गल कर सडा़ते रहे...