विचार मंथन
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चित्र साभार pixabay.com ,से |
"कुछ नहीं है हम इंसान,
मूली हैं ऊपर वाले के खेत की" ।
सुना तो सोचा क्या सच में
हम मूली (पौधे) से हैं ऊपर वाले के
सृष्टि रूपी खेत की ?
क्या सचमुच उसके लिए
हम वैसे ही होंगे जैसे हमारे
लिए खेत या गमलों में उगे उगाये पौधे ?
देखा छोटे से गमले में उगी अनगिनत पौध को !
हर पौधा बढ़ने की कोशिश में
अपने हिस्से का सम्पूर्ण पाने की लालसा लिए
अपने आकार को संकुचित कर
बस ताकता है अपने हिस्से का आसमान ।
खचाखच भरे गमले के उन
नन्हें पौधों की तकदीर होती माली के हाथ !
माली की मुट्ठी में आये
मिट्टी छोड़ते मुट्ठी भर पौधे
नहीं जानते अपना भविष्य
कि कहाँ लेंगे वे अपनी अगली साँस ?
किसे दिया जायेगा नये खाद भरे
गमले का साम्राज्य ?
या फिर फेंक दिया जायेगा
कहीं कचड़े के ढ़ेर में !
नन्हीं जड़ें एवं कोपलें
झुलस जायेंगी यूँ ही तेज धूप से,
या दफन कर बनाई
जायेगी कम्पोस्ट !
या उसी जगह यूँ ही
अनदेखे से जीना होगा उन्हें ।
और मौसम की मर्जी से
पायेंगे धूप, छाँव, हवा और पानी ।
या एक दूसरे की ओट में कुछ
सड़ गल कर सडा़ते रहेंगे
दूसरों को भी ।
या फिर अपना रस कस देकर
मिटायेंगे दूसरों की भूख ।
जो भी हो जिसके साथ
वही तो है न उसकी तकदीर !
तो ऐसे ही उपजे हैं
सृष्टि में हम प्राणी भी ?
अपनी -अपनी तकदीर लिए
एक पल की खुशी
एक पल में गम
कहीं मरण तो कहीं जनम !
कहीं प्राकृतिक तो कहीं
स्वयं मानव निर्मित आपदाओं को झेलते
कुछ मरे तो कुछ अधमरे,
कुछ बिखरे तो कुछ दबे पार्थिव-शरीर !
जैसे छँटाई हो सृष्टि की !
फिर किसको नसीब हो जिंदगी
और किसको मिले मौत !
वो भी ना जाने कैसी
जिंदगी की भी तो
वही गिनती की साँसे !
तिस पर रेत के मानिंद फिसलता ये वक्त!
साथ ही माया-मोह का जंजाल
संवेदनाएं और ये जज्बात !
उलझते ऐसे कि भूल ही जाते अपना अस्तित्व
बीज से बाली तक के
इस अनोखे सफर में
खुद को शहंशाह समझने की
भूल फिर-फिर दोहराते
और पसारते जड़ों को ज्यादा मिट्टी लेने की चाह में
तब तक जब तक कि
खुद मिट्टी ना हो जाते ।
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टिप्पणियाँ
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद आ.शास्त्री जी ! मेरी रचना को चर्चा मंच के लिए चयन करने के लिए।
सादर आभार आपका ।
क्या सचमुच उसके लिए
जवाब देंहटाएंहम वैसे ही होंगे जैसे हमारे
लिए खेत या गमलों में उगे उगाये पौधे ?
शायद हम उसके लिए वैसे ही हो.., जैसा आपने
कहा है ।बहुत सुन्दर सृजन ।
रोचक कल्पना की है। शायद वैसे ही होंगे पौध से।
जवाब देंहटाएंजीवन अक्सर यूँ ही सोचने को विवश करता है जब तक बहुत सारे प्रश्नों के जवाब नहीं मिल जाते पर यह इतना आसान भी नहीं। दिल के क़रीब सराहनीय रचना🌹
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कहा प्रिय सुधा दी फसल हैं ऊपर वाले के खेत की।
जवाब देंहटाएंमूली के बहाने बहुत सुंदर सृजन।
सादर स्नेह
गहन विचार सुधा जी सचमुच आपके कहे मुताबिक कई बार महसूस होता है कि हम विधाता के गमले के पौधे ही है, और न जाने कौन से परिणाम को अग्रसर।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अप्रतिम कल्पना और विचार शक्ति।
पसारते जड़ों को ज्यादा मिट्टी लेने की चाह में
जवाब देंहटाएंतब तक जब तक कि
खुद मिट्टी ना हो जाते ।
ये अस्वीकार करते हुए कि"परमात्मा का हम कोई जोर नहीं है"
सच, इस सृष्टि में हम भी ईश्वर के बगीचे के पौधे ही तो है।
आध्यात्मिक विचार लिए बहुत ही सुन्दर सृजन आदरणीया सुधा जी 🙏
विचार परक रचना
जवाब देंहटाएंपौधे के माध्यम से बहुत ही सुंदर तरीके से जीवन का सम्पूर्ण दर्शन करा दिया आपने। सचमुच हम नहीं जानते कि कल क्या होगा? मूली की तरह ही हम बेबस है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर,
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंऔर लोग दूसरों को कह देते हैं की तुम किस खेत की मूली हो ......... मनुष्य जीवन की तुलना पौधों से करती गहन अभिव्यक्ति .
जवाब देंहटाएंमूली का संदर्भ ले जीवन को रखेंकित करती सारगर्भित रचना । सार्थक जीवन दर्शन ।
जवाब देंहटाएंसार गर्भित रचना सखी
जवाब देंहटाएंदार्शनिक भावों से परिपूर्ण!!!
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